शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2016

Fantomas

फ़ैंटोमस*

* (एक काल्पनिक सुपरहीरो)

लेखक: विक्टर  द्रागूनस्की
अनुवाद: आ.चारुमति रामदास


ये तस्वीर भी ग़ज़ब की तस्वीर है! ये है तस्वीर! मैं आपसे सही में कहता हूँ, कि इस तस्वीर को देखकर कोई भी दीवाना हो सकता है. साधारण तस्वीर को देखने से कोई असर नहीं होता.

मगर “फ़ैंटोमस” – बात ही अलग है! पहली बात, रहस्य! दूसरी, मास्क! तीसरी, एडवेन्चर्स और फ़ाइट्स! और चौथी बात, बेहद इंटरेस्टिंग है, बस!

और, ज़ाहिर है, सारे लड़कों ने, जैसे ही इस तस्वीर को देखा, सब “फ़ैंटोमस-फ़ैंटोमस” खेलने लगे. इसमें सबसे ख़ास है – बेहद ख़तरनाक चिट्ठियाँ लिखना और उन्हें अप्रत्याशित जगहों पर घुसेड़ देना. खूब मज़ा आता है. जिसे भी फ़ैंटोमस वाली चिट्ठी मिलती, फ़ौरन डर के मारे कांपने लगता. बूढ़ी औरतें भी, जो ज़िन्दगी भर प्रवेश द्वार के पास बैठी रहती थीं, अब ज़्यादातर घर में ही रहती हैं. अपनी मुर्गियों के साथ ही सो जाती हैं. बात समझ में भी आती है. आप ख़ुद ही सोचिए: क्या उस बूढ़ी औरत का दिमाग़ ठिकाने पे रह सकता है, जिसे अपने लेटर-बॉक्स में सुबह ही ऐसी मज़ेदार चिठी मिली हो:

‘अपनी गिस-स्टव संबाल! वो उड़ जाने वाला है!’

ऐसे में तो बहादुर से बहादुर बुढ़िया का दिमाग़ भी ख़राब हो जाएगा, और वो पूरे दिन किचन में बैठी रहेगी, अपने गैस-स्टोव की हिफ़ाज़त करेगी और दिन में पाँच बार मॉस्को-गैस को फ़ोन लगाएगी. बड़ा ‘फ़नी’ लगता है. जब मॉस्को-गैस वाली लड़की पूरे दिन कम्पाऊण्ड में घूमती रहती है, और चिल्लाती है:     “ये फ़ैंटोमस फिर से हंगामा कर रहा है! ऊ, सत्यानास हो जाए!” तो ऐसा लगता है कि हँसते-हँसते पेट फूट जाएगा!...

सारे लड़के हँसते रहते हैं और एक दूसरे को आँख़ मारते हैं, और, न जाने कहाँ से बिजली की तेज़ी से नई-नई फ़ैंटोमस की चिट्ठियाँ प्रकट हो जाती हैं, हर फ्लैट में अलग-अलग. जैसे:

’रात को बाहर न निकलना. माड्डालूँगा!’        
या:

‘तेरे बारे में सब जानते है, अपनी बीबी से डर!’

या फिर सिर्फ ऐसी:

‘अपनी फ़ोटो बनवा! सफ़ेद चप्पल में.’

हालाँकि ये सब हर समय मज़ाकिया नहीं होता था , बल्कि बेवकूफ़ी भरा ही होता था, मगर फिर भी हमारे कम्पाऊण्ड में काफ़ी शांति रहने लगी. सब लोग जल्दी सोने लगे, और मिलिशिया कॉम्रेड पार्खोमोव अक्सर हमारे यहाँ दिखाई देने लगा. वह हमें समझाता, कि हमारा खेल – ये बग़ैर किसी मक़सद का, बग़ैर किसी मतलब का खेल है, सिर्फ बेहूदगी है. वो ये भी बताता कि वही खेल अच्छा होता है, जिससे लोगों को कोई फ़ायदा हो – जैसे वोलीबॉल या फिर टाऊन-टाऊन जिनसे हमारी मारने की ताक़त और नज़र का निशाना मज़बूत होते हैं, मगर तुम्हारी चिट्ठियों से कुछ भी मज़बूत नहीं होता, और उनकी किसी को ज़रूरत भी नहीं है, वे सिर्फ आपकी बेवकूफ़ी ज़ाहिर करती हैं.

 “अपनी ड्रेस की तरफ़ ही ध्यान देते,” कॉम्रेड पार्खोमोव कहता. “देखो, जूते!” और उसने मीशा के धूल भरे जूतों की तरफ़ इशारा किया. “स्कूल के स्टूडेण्ट को शाम को ही उन्हें साफ़ करना चाहिए!”

ऐसा काफ़ी दिनों तक चलता रहा, और हम अपने फ़ैंटोमस को थोड़ा आराम देने लगे और सोचने लगे, कि अब बहुत हो गया. बहुत खेल लिए! मगर ऐसा नहीं था!

अचानक हमारे यहाँ एक और फ़ैंटोमस हंगामा मचाने लगा, और वो भी कैसे! बस, भयानक! बात ये हुई कि हमारी बिल्डिंग में एक बूढ़ा टीचर रहता है, वो कब का रिटायर हो चुका है, लम्बा और दुबला पतला, जैसे स्कूल-मैगज़ीन का पात्र – कोल, हाथ में छड़ी भी वैसी ही लिए रहता है – ज़ाहिर है, अपनी ऊँचाई के हिसाब से ली होगी. हमने फ़ौरन उसका नाम कोल येदीनित्सिन रख दिया, मगर फिर अपनी सुविधा के लिए उसे सिर्फ ‘कोल’ कहकर बुलाने लगे.

एक बार मैं सीढ़ियाँ उतर रहा था, तो देखता क्या हूँ कि उसके लेटर-बॉक्स में फ़टी हुई, मुड़ी-तुड़ी चिट्ठी लगी है. पढ़ता हूँ:

“कोल, ऐ कोल!
       चुबाऊँगा तुजमें उकोल*!”

इस चिट्ठी में लाल पेन से सारी गलतियाँ सुधारी गई थीं, और अंत में बड़ा सा ‘1’ ** बना था. और साफ़, सही-सही लिखा था:
“तूने चाहे जैसे भी लिखा हो, इतने गन्दे, ज़मीन पे पड़े हुए कागज़ पे कभी नहीं लिखना चाहिए. एक बात और: सलाह देता हूँ कि ग्रामर का ध्यान रखो.”

दो दिन बाद हमारे ‘कोल’ के दरवाज़े पर नोटबुक का साफ़ कागज़ लटक रहा था. कागज़ पर दबा-दबा कर, जोश से लिखा गया था:

“थूकता हूँ तेरे ग्रमर पे!”

तो, नासपीटा फ़ैंटोमस, ग़ुस्से में आ गया था! एक और सिलसिला शुरू हो रहा था. कितने शर्म की बात है. एक बात अच्छी थी: फ़ैंटोमस की चिट्ठी पूरी तरह लाल पेन्सिल से रंगी थी और नीचे पड़ा था – 2. पहली बार ही की तरह साफ़-साफ़ अक्षरों में ‘नोट’ लिखा था:

“कागज़ काफ़ी साफ़ है. तारीफ़ करता हूँ. सलाह: ग्रामर के नियमों के अलावा, अपनी निरीक्षण शक्ति भी बढ़ाओ, आँख वाली याददाश्त, तब तुम ‘ग्रमर’ नहीं लिखोगे. मैंने तो पिछले ख़त में इस शब्द का प्रयोग किया था. “ग्रामर”. याद रखना चाहिए.”

इस तरह उनके बीच काफ़ी लम्बी ख़तो-किताबत चलती रही. फ़ैंटोमस काफ़ी दिनों तक हमारे ‘कोल’ को क़रीब-क़रीब हर रोज़ ख़त लिखता रहा, मगर ‘कोल’ उसके प्रति वैसा ही कठोर था. छोटी-छोटी गलतियों के लिए भी ‘कोल’ फ़ैंटोमस को अपना फ़ौलादी ‘2’ ही देता था, और ऐसा लगता था कि ये कभी ख़त्म ही नहीं होगा.

मगर एक दिन रईसा इवानोव्ना ने हमें क्लास में डिक्टेशन दिया. कठिन था. डिक्टेशन लिखते-लिखते  हम सब कराह रहे थे, पसीने-पसीने हो रहे थे. दुनियाभर के सबसे कठिन शब्द थे उस डिक्टेशन में. जैसे, अंत में ऐसा वाक्य था: “हम सुखद अंत तक पहुँच ही गए”. इस वाक्य ने सबको परेशान कर दिया. मैंने लिखा: “सखद अंत तक पहुँच गए”. और रईसा इवानोव्ना ने कहा:

”ऐह, तुम, दुखदाई लेखकों, सिर्फ एक मीशा स्लोनोव ने कुछ ढंग का लिखा है, मुझे तुम्हारी सूरत भी नहीं देखनी है! जाओ! टहलो! कल फिर से शुरू करेंगे.”

हम अपने-अपने घर चले गए.        

मैं तो जलन के मारे चरमरा ही गया, जब अगले दिन ‘कोल’ के दरवाज़े पे बर्फ़ जैसे सफ़ेद कागज़ का पन्ना देखा और उस पर ख़ूबसूरत अक्षरों में लिखा था:

“थैंक्यू, ‘कोल! मुझे रूसी भाषा में ‘3’ मिले हैं! ज़िन्दगी में पहली बार! हुर्रे!
तुम्हारी इज़्ज़त करने वाला - फ़ैंटोमस!”

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* उकोल रूसी शब्द है, जिसका अर्थ है – इंजेक्शन है, तुकबन्दी को देखते हुए इसका अनुवाद नहीं किया है – अनु.  

** यदि किसी विद्यार्थी को 1 या 2 नम्बर मिलते हैं, तो वह अनुत्तीर्ण होता है, पास होने के लिए 3, उत्तम – 4, और अतिउत्तम ग्रेड के लिए 5 अंक होना ज़रूरी है.  

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