ख़ुशबू आसमान की और तमाकू की
लेखक: विक्टर द्रागून्स्की
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास
अगर अब इस बारे
में सोचूँ, तो लगता है कि कितना डरावना था: मैं अभी तक एक भी बार हवाई जहाज़ में
नहीं उड़ा था. ये सच है, कि एक बार मैं बस हवाई जहाज़ का सफ़र करते-करते रह गया, बात
बनी नहीं. प्लान गड़बड़ हो गया. ट्रेजेडी. और ये अभी हाल ही में हुआ था. मैं, अब
छोटा तो नहीं हूँ, हाँलाकि ये भी नहीं कह सकते कि बड़ा हूँ. उस समय मम्मा को
छुट्टियाँ थीं, और हम एक बड़े ‘सामूहिक फ़ार्म’ में उसके रिश्तेदारों के यहाँ गए थे.
वहाँ बहुत सारे ट्रैक्टर्स और घास काटने वाली मशीनें थीं. मगर ख़ास बात ये थी, कि
वहाँ जानवर भी थे: घोड़े, चूज़े और कुत्ते. और काफ़ी सारे लड़कों की हँसती-खेलती टोली
थी. सब सफ़ेद बालों वाले और बेहद मिलनसार.
रात को जब मैं
छोटे से कैबिन में सोता, तो दूर से हार्मोनियम की आवाज़ आती, ऐसा लगता कि कोई
दुखभरी धुन बजा रहे हों, और इस आवाज़ को सुनते हुए मैं फ़ौरन सो जाता.
इस सामूहिक
फ़ार्म में मैं सबसे प्यार करने लगा, और ख़ास तौर पे लड़कों से, और मैंने फ़ैसला कर
लिया कि पहले मैं चालीस साल का होने तक यहाँ रहूँगा, और बाद में सोचा जाएगा. मगर,
अचानक स्टॉप, कार! नमस्ते! मम्मा ने कहा कि छुट्टियाँ तो जैसे एक पल में ख़तम हो
गईं और हमें फ़ौरन घर जाना चाहिए. उसने दादा वाल्या से पूछा:
“शाम की ट्रेन कितने बजे जाती है?”
उसने कहा:
“तू ट्रेन में क्यों परेशान होती है? हवाई जहाज़
से चली जा! एअरपोर्ट तो सिर्फ तीन मील दूर है. बस, एक मिनट में डेनिस के साथ
मॉस्को पहुँच जाएगी!”
हूँ, तो दादा वाल्या
– गोल्डन मैन है! बेहद भला. एक बार उन्होंने मुझे आसमानी-गाय प्रेज़ेंट दी थी. इसके
लिए मैं उन्हें कभी नहीं भूलूँग़ा. और इस समय भी. जब उन्होंने देखा कि मैं कितनी
बेताबी से हवाई जहाज़ में उड़ना चाहता हूँ, तो उन्होंने दो मिनट में मम्मा को मना
लिया, और वो भी, न चाहते हुए भी, तैयार हो गई.
दादा वाल्या ने
ये सोचकर कि बेकार में ही ट्रक को क्यों दौड़ाया जाए, घोड़े को गाड़ी में जोता, हमारी
भारी सूटकेस घास पे रखी, और हम गाड़ी में बैठकर चल पड़े. पता नहीं, कैसे बताऊँ, कि
कितना बढ़िया लग रहा था गाड़ी में जाना, उसकी चरमराहट को सुनना, और चारों ओर से आ
रही खेतों की, डामर की और तमाकू की ख़ुशबू महसूस करना. मैं ख़ुश था कि कुछ ही देर
में उड़ने वाला हूँ, क्योंकि एक बार मीश्का कम्पाऊण्ड में बता रहा था, कि कैसे वो
पपा के साथ त्बिलिसी गया था, हवाई जहाज़ में, कि उनका हवाई जहाज़ कित्ता बड़ा था, तीन
कमरों वाला, और कैसे उन्हें जितनी चाहो, उतनी चॉकलेट्स दी गई थीं, और ब्रेकफ़ास्ट
में पॉलिथीन की छोटी सी बैग में पैक सॉसेज दिए गए थे और ट्रे वाली छोटी सी मेज़ पर
चाय दी गई थी.
ख़यालों में मैं
इतना खो गया कि पता ही नहीं चला, कब अचानक हमारी घोड़ा-गाड़ी क्रिसमस-ट्री की
टहनियों से सजाए गए लकड़ी के ऊँचे गेट में घुसी. टहनियाँ पुरानी थीं, वे पीली होने
लगी थीं. इस गेट के पीछे भी खेत थे, सिर्फ घास हरी-हरी नहीं, बल्कि सूखी, बदरंग
थी. कुछ दूर, हमारे बिल्कुल सामने एक छोटी सी बिल्डिंग थी. दादा-वाल्या उसके पास
गया. मैंने कहा:
“हम यहाँ क्यों आए हैं? हिचकोले खा-खा के मैं
‘बोर’ हो गया हूँ. जल्दी से एअरपोर्ट जाएँगे.”
दादा वाल्या ने
कहा:
“तो फ़िर ये क्या है? ये ही तो एअरपोर्ट
है...क्या तुझे दिखाई नहीं दे रहा है?”
मेरा दिल डूब
गया. ये सूखा-सट् खेत – एअरपोर्ट है? क्या बेवकूफ़ी है! ख़ूबसूरती कहाँ है? ज़रा भी
ख़ूबसूरती नहीं है! मैंने कहा:
“और हवाई जहाज़?”
“इस टर्मिनल में जाएँगे,” उन्होंने हाथ से
बिल्डिंग की ओर इशारा किया, “इसे पार करके दूसरे गेट से बाहर निकलेंगे, वहीं हवाई
जहाज़ होंगे...क्या चारा खिलाऊँ?...”
और उन्होंने
हमारे घोड़े के सिर पे जई के दानों वाली थैली बांध दी, और वो खाने लगा.
हम इस बिल्डिंग
में गए. वहाँ बहुत घुटन थी और कैबेज-सूप की गंध आ रही थी. पहले कमरे में लोग बैठे
थे. एक दद्दू थे हाथ में व्हील वाली छड़ी लिए, एक बोरे वाली दादी थी. उसके बोरे में
कोई साँस ले रहा था – शायद सुअर का पिल्ला हो. एक औरत थी गुलाबी कमीज़ वाले दो छोटे
बच्चों और एक दूध पीते नन्हे के साथ. उसने नन्हे को तौलियों में इतना कस के लपेटा
था, और वो बिल्कुल केटरपिलर (इल्ली) जैसा लग रहा था, क्योंकि पूरे समय कुलबुला रहा था.
वहीं पर अख़बार
का स्टाल था. दादा वाल्या ने हमारी भारी सूटकेस मम्मा के पास रख दी और स्टाल की ओर
चल पड़ा. मैं भी उसके पीछे-पीछे गया.
मगर स्टाल काम
नहीं कर रहा था.
काँच पे एक
कागज़ लगा था, और उस पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था:
“20 मिनट बाद आऊँगा.”
मैंने इसे ज़ोर
से पढ़ा. व्हील वाले दद्दू ने कहा:
“देखिए – ये पढ़ रहा है!”
और सब लोग मेरी
ओर देखने लगे. और मैंने कहा:
“और सिर्फ छह साल का है.”
सब लोग हँसने
लगे. दादा वाल्या, जब हँसते थे तो अपने सारे दाँत दिखाते थे. उनके दाँत बड़े मज़ेदार
थे: एक ऊपर – दाईं ओर, और दूसरा – नीचे बाईं ओर. दादा बड़ी देर तक हँसते रहे. इसी
समय एक मोटे नौजवान ने कमरे में झाँका. उसने कहा:
“मॉस्को कौन जा रहा है?”
“हम”, सभी एक सुर में चिल्लाए और जल्दबाज़ी मचाने
लगे. “मॉस्को – हम!”
“मेरे पीछे आइए,” नौजवान ने कहा और चल पड़ा.
सब उसके पीछे
हो लिए. हम लम्बे कॉरीडोर को पार करके बिल्डिंग की दूसरी तरफ़ आए. वहाँ एक खुला हुआ
दरवाज़ा था. उससे नीला आसमान दिखाई दे रहा था. दरवाज़े के सामने दो पहलवान खड़े थे –
हट्टेकट्टे अंकल, जैसे सर्कस वाले फ़ाईटर्स हों. एक की दाढ़ी काली थी, और दूसरे की –
लाल. उनके पास थी वज़न नापने की मशीन. जब हमारी बारी आई, तो दादा वाल्या ने “ऊँ..”
करते हुए भारी सूटकेस काऊंटर पे रख दी. सूटकेस का वज़न किया गया, मम्मा ने पूछा:
“हवाई जहाज़ कितनी दूर है?”
“क़रीब चार सौ मीटर्स,” लाल पहलवान ने कहा.
“पाँच सौ भी हो सकता है,” काले ने कहा.
“सूटकेस ले जाने में मदद कीजिए, प्लीज़,” मम्मा
ने कहा.
“हमारे यहाँ ‘सेल्फ-सर्विस’ है,” लाल वाले ने
कहा.
दादा वाल्या ने
मम्मा की ओर देखकर आँख मिचकाई, वो खाँसा, सूटकेस उठाई, और हम खुले दरवाज़े से बाहर
निकले. दूर कोई एक नन्हा सा जहाज़ खड़ा था, ड्रैगनफ्लाइ जैसा, बस वो सारस जैसी
टाँगों पर खड़ा था. हमारे आगे-आगे सारे परिचित चल रहे थे: व्हील, सुअर के पिल्ले
वाला बोरा, गुलाबी कमीज़ें, केटरपिलर. जल्दी ही हम हवाई जहाज़ तक पहुँच गए. नज़दीक से
तो वह और भी छोटा नज़र आ रहा था. सब उसमें घुसने लगे, और मम्मा ने कहा:
“वाह, वाह! ये क्या रूसी हवाई जहाज़ों का दादा
है?”
“ले-देकर ये प्रदेश में जाने-आने वाला आंतरिक
जहाज़ है,” हमारे दादा वाल्या ने कहा. “बेशक, TU-104 नहीं है! क्या कर सकते हैं. आख़िर उड़ता तो है! एअरोफ्लोत है.”
“अच्छा?” मम्मा ने पूछा. “क्या ये उड़ता है? बड़ी
प्यारी बात है! ये उड़ता भी है? ओह, बेकार ही में हम ट्रेन से नहीं गए! मुझे तो इस
उड़ने वाली चिड़िया पर भरोसा ही नहीं है. जैसे कोई मध्ययुगीन चीज़ हो...”
“एअरलाइनर नहीं है, बेशक!” दादा वाल्या ने कहा.
“झूठ नहीं बोलूँगा. लाइनर नहीं है, गॉड सेव! क्या करें!”
और, वो मम्मा
से बिदा लेने लगे, और फिर मुझसे. उन्होंने हौले से मेरे गाल को अपनी नीली दाढ़ी से
छुआ, और मुझे अच्छा लगा, कि उसमें से तमाकू की ख़ुशबू आ रही है, फिर मैं और मम्मा
हवाई जहाज़ में चढ़ गए. हवाई जहाज़ के अन्दर, दीवारों से सटी हुईं दो लम्बी बेंचें
थीं. पायलेट भी दिखाई दे रहा था, उसके लिए कोई कैबिन नहीं था, सिर्फ एक हल्का सा
दरवाज़ा था, वो खुला था. जब मैं हवाई जहाज़ के भीतर आया तो उसने मुझे देखकर हाथ
हिलाया.
इससे मेरा मूड
एकदम अच्छा हो गया, और मैं आराम से बैठ गया – पैर सूटकेस पे रखके.
मुसाफ़िर एक
दूसरे के सामने बैठे थे. मेरे सामने गुलाबी कमीज़ें बैठी थीं. पायलेट कभी इंजिन
चालू करता, कभी बन्द करता.
सारी बातों की
ओर देखते हुए ऐसा लग रहा था, कि बस, अभ्भी उड़ने वाले हैं. मैंने बेंच को पकड़ना भी
शुरू कर दिया, मगर तभी हवाई जहाज़ की तरफ़ एक लॉरी आई, जिसमें ठसाठस लोहे का सामान
भरा था. लॉरी से दो आदमी उछल कर बाहर आए. उन्होंने पायलेट से चिल्लाकर कुछ कहा.
अपनी गाड़ी का बोर्ड निकाला, हमारे लाइनर के ठीक दरवाज़े पे आए और सीधे हवाई जहाज़
में अपनी लोहे की भारी भरकम चीज़ें चढ़ाने लगे.
जब लॉरी वाले ने
अपना पहला सामान हवाई जहाज़ की पूँछ में फेंका, तो पायलेट ने देखा और कहा: “वहाँ
धीरे से फ़ेंको. क्या फर्श तोड़ने का इरादा है?”
मगर लॉरी वाले ने
कहा:
”घबराओ नहीं!”
तभी उसका साथी
अगला डला लाया और फिर:
“ब्र्याक!”
पहले वाला एक
और लाया:
“श्वार्क!”
एक और:
“बूत्स!”
फिर और:
“ज़िन!”
पायलेट कहता
है:
“ऐ, लोगों! सब कुछ पूँछ में मत फेंको. वर्ना तो
मैं हवा में कुँलाटें लगाने लगूँगा.
पूँछ के बल
कुँलाटें – और, शाबाश.”
लॉरी वाला बोला:
“डरो नहीं!”
और फिर से:
”बाम्स!”
”ग्ल्यान्त्स!”
पायलेट बोला:
“क्या अभी बहुत है?”
“क़रीब डेढ़ टन,” लॉरी वाले ने जवाब दिया.
अब हमारे
पायलेट को गुस्सा आ गया और उसने दोनों हाथों से सिर पकड़ लिया.
“तुम क्या कर रहे हो?” वो चिल्लाया. पागल हो गए
हो क्या! आप समझ रहे हैं, कि मैं टेक-ऑफ़ नहीं कर पाऊँगा? आँ?!”
मगर लॉरी वाले ने
फिर कहा:
“डरो नहीं!”
और फिर से:
“ब्रूम्स!”
“ब्राम्स!”
इस सबसे हमारे
हवाई जहाज़ में बेचैन सी ख़ामोशी छा गई.
मम्मा का चेहरा
फ़क् हो गया, और मेरे पेट में गुड़गुड़ होने लगी.
और तभी:
“ब्राम्स!”
पायलेट ने अपनी
टोपी उतार दी और चीख़ा:
“मैं तुमसे आख़िरी बार कह रहा हूँ – अब और लादना
बन्द करो! मेरी इंजिन टूट जाएगा! लो, सुनो!”
और उसने इंजिन
चालू किया. पहले हमने एक सी आवाज़ सुनी: त्रर् र् र् र् र् .......फिर न जाने कहाँ
से: चाव-चाव-चाव-चाव...
और फिर एकदम:
ख्लूप-ख्लूप-ख्लूप...
फिर अचानक: स्युप-स्युप-स्युप.....पीइ-
पीइ-! पीइ...
पायलेट बोला:
“तो, ऐसे इंजिन के होते हुए क्या ज़्यादा वज़न
लादा जा सकता है?”
लॉरी वाले ने
जवाब दिया:
“डरो नहीं! ये हम सेर्गाचेव के हुक्म से लाद रहे
हैं. सेर्गाचेव ने हुक्म दिया, और हम लाद रहे हैं.”
हमारे पायलेट ने बुरा मुँह बनाया और चुप हो गया. मम्मा पीली पड़ गई, और बूढ़ी औरत का सुअर का पिल्ला
अचानक चिंघाड़ने लगा, मानो समझ गया हो कि मामला बुरा है. मगर लॉरी वाले लगातार अपना
ही काम किए जा रहे थे:
“त्रूख!”
“त्रूख!”
मगर पायलेट ने विद्रोह
कर दिया:
“आप मुझसे फ़ोर्स्ड-लैण्डिंग करवाएँगे! पिछली गर्मियों
में भी दस किलोमीटर्स दूर कोश्किनो तक भी खींच नहीं पाया था. मुझे खेत में लैण्ड करना
पड़ा था! ये ख़ूब है, आपके ख़याल से क्या पैसेंजर्स को दस मील पैदल दौड़ाऊँ?”
“डर का माहौल मत पैदा करो!” लॉरी वाले ने कहा. “चला
जायेगा!”
”आपसे ज़्यादा अच्छी
तरह मैं अपने जहाज़ को जानता हूँ, कि जा सकता है या नहीं!” पायलेट चिल्लाया. “क्या,
मैं पूरे जहाज़ को बरबाद कर दूँ? सेर्गाचेव को इसके लिए सज़ा नहीं होगी, नहीं. मगर मुझे
तो जेल हो ही जाएगी!”
“नहीं होगी,” लॉरी वाले ने कहा. “और अगर बिठा दिया,
तो दूसरा ले आऊँगा.”
और, जैसे कुछ हुआ
ही न हो:
“बर्रीन्ज़!”
अब मम्मा खड़ी हो
गई और बोली:
“कॉम्रेड पायलेट! क्या फ़्लाइट शुरू होने तक मेरे
पास पाँच मिनट का समय है?”
“जाइए,” पायलेट ने कहा,” मगर फ़ुर्ती से...और सूटकेस
क्यों ले जा रही हैं?”
“मैं कपड़े बदलना चाहती हूँ,” मम्मा ने बेझिझक
कहा, “मुझे बेहद गर्मी लग रही है. गर्मी से मेरा दम निकल जाएगा.”
“जल्दी ...” पायलेट ने कहा.
मम्मा ने मुझे बगल
में पकड़ा और दरवाज़े की ओर लाई. वहाँ लॉरी वाले ने मुझे पकड़ लिया और ज़मीन पर रख दिया.
मम्मा मेरे पीछे कूद गई. लॉरी वाले ने उसे सूटकेस थमा दी. और, हालाँकि हमारी मम्मा
हमेशा से कमज़ोर है, मगर इस समय उसने हमारी भारी-भरकम सूटकेस को कंधे पर रख लिया और
हवाई जहाज़ से दूर जाने लगी. वो टर्मिनल की तरफ़ जाने लगी. मैं उसके पीछे भाग रहा था.
पोर्च में दादा वाल्या खड़े थे. जब उन्होंने हमें देखा तो सिर्फ हाथ हिला दिए. शायद,
वो फ़ौरन सब कुछ समझ गए, क्योंकि उन्होंने मम्मा से कुछ भी नहीं पूछा. हम सबने जैसे
एक राय बना ली थी, चुपचाप इस बेढंगी बिल्डिंग से से दूसरी ओर चलते रहे, हमारी घोड़ा
गाड़ी की ओर. हम गाड़ी में बैठ गए और चलने ही वाले थे, कि मैंने मुड़ कर देखा कि एअरपोर्ट
से धूल भरे रास्ते पर, सूखी पगडंडी पे हमारी तरफ़ गिरते पड़ते और हाथ फ़ैलाए भागी चली
आ रही हैं दोनों गुलाबी कमीज़ें. उनके पीछे अपने कसकर लिपटे कैटरपिलर को सीने से चिपटाए
उनकी मम्मा भाग रही थी.
हमने उन सबको गाड़ी
में बिठा लिया. दादा वाल्या ने लगाम खींची, घोड़ा चल पड़ा और मैं पीठ टिकाकर बैठ गया.
चारों ओर नीला आसमान था, गाड़ी चरमरा रही थी, और आह, कितनी बढ़िया ख़ुशबू थी खेत की, डामर
की और तमाकू की.
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