बूढ़ा नाविक
लेखक: विक्टर द्रागून्स्की
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास
मारिया
पेत्रोव्ना हमारे यहाँ अक्सर चाय पीने के लिए आती है. वो पूरी की पूरी ऐसी
मोटी-मोटी है, उसकी ड्रेस ऐसी तंग, खिंची-खिंची होती है, जैसे तकिए पर खींच-खींच कर
गिलाफ़ चढ़ाया गया हो. उसके कानों में तरह-तरह की बालियाँ लटकती रहती हैं. और वो कोई
सूखा सा, मीठा-मीठा सेन्ट लगाती है. जब मैं ये ख़ुशबू सूंघता हूँ तो मेरा गला फ़ौरन
सिकुड़ जाता है. मारिया पेत्रोव्ना जैसे ही मुझे देखती है, तो फ़ौरन सवाल पूछने लगती
है: कि मैं क्या बनना चाहता हूँ. मैं उसे पहले ही पाँच बार समझा चुका हूँ, मगर वो
है कि एक ही सवाल बार-बार पूछे ही जाती है. अजीब है. जब वो पहली बार हमारे यहाँ
आई, तो बसंत का मौसम था, खिड़कियों से हरियाली की ख़ुशबू आ रही थी, और, हालाँकि शाम
हो चुकी थी, फिर भी उजाला था. मम्मा मुझे सोने के लिए कहने लगी, और, जब मैंने कहा,
कि मैं अभी नहीं सोना चाहता, तो मारिया पेत्रोव्ना अचानक बोली:
“अच्छे बच्चे बनो, सो जाओ, और अगले इतवार को मैं
तुम्हें समर-कॉटेज ले जाऊँगी, क्ल्याज़्मा में. हम इलेक्ट्रिक ट्रेन से जाएँगे.
वहाँ नदी है और कुत्ता भी है, और हम तीनों बोटिंग भी करेंगे.”
मैं फ़ौरन लेट
गया, मैंने अपने आपको सिर तक ढँक लिया, और अगले इतवार के बारे में सोचने लगा, कि
मैं कैसे समर-कॉटेज जाऊँगा, कैसे नंगे पैर घास पर घूमूँगा, और नदी देखूँग़ा, और, हो
सकता है, मुझे चप्पू चलाने देंगे, और चप्पुओं की कड़ियाँ झनझनाएँगी, और पानी
बुड़बुड़ाएगा, और चप्पुओं से पानी में बूंदें गिरती रहेंगी, पारदर्शक, बिल्कुल शीशे
जैसी. मैं वहाँ छोटे से कुत्ते से दोस्ती करूँगा, शायद उसका नाम झूच्का या तूज़िक
होगा, मैं उसकी पीली आँखों में देखूँगा, और जब गर्मी के कारण ज़ुबान बाहर निकालेगा,
तो मैं उसे छू लूँगा.
मैं इस तरह
लेटा था, और सोच रहा था, और मारिया पेत्रोव्ना की हँसी सुन रहा था, और न जाने कब
सो गया. इसके बाद पूरे हफ़्ते, जब सोने जाता, तो बस यही बात सोचता.
जब शनिवार आया,
तो मैंने अपने जूते साफ़ किए, और दाँत भी ब्रश किए, और अपनी पेन्सिल तेज़ करने का
चाकू लिया, उसे गैस के स्टोव पे रगड़ कर तेज़ भी किया, क्योंकि क्या पता, कौन सी
टहनी तोड़ना पडे, हो सकता है, अख़रोट की भी टहनी हो.
सुबह मैं सबसे
पहले उठा, और कपड़े पहनकर मारिया पेत्रोव्ना का इंतज़ार करने लगा.
जब पापा ने
ब्रेकफ़ास्ट कर लिया और अख़बार भी पढ़ लिए, तो बोले:
“चल, डेनिस्का, ‘चिस्तीये’ लेक पर चलते हैं,
घूमेंगे!”
“क्या कह रहे हो, पापा! और मारिया पेत्रोव्ना?
अभी वो आएगी मुझे लेने, और हम क्ल्याज़्मा जाएँगे. वहाँ कुत्ता है और नाव है. मुझे
उसका इंतज़ार करना पड़ेगा.”
पापा चुप हो गए
और उन्होंने मम्मा की तरफ़ देखा, फिर उन्होंने कंधे उचकाए और चाय का दूसरा गिलास
पीने लगे. मैंने जल्दी से ब्रेकफ़ास्ट पूरा किया और कम्पाऊण्ड में निकला. मैं गेट
के पास घूम रहा था, जिससे कि जैसे ही मारिया पेत्रोव्ना आए, फ़ौरन उसे देख सकूँ.
मगर न जाने क्यों वो बड़ी देर तक नहीं आई. तब मीश्का मेरे पास आया, उसने कहा:
“चल, एटिक पे चढ़ते हैं! देखेंगे कि कबूतरों के
पिल्ले पैदा हुए या नहीं...”
“समझ रहा है, मैं नहीं आ सकता...मैं एक दिन के
लिए गाँव जा रहा हूँ. वहाँ कुत्ता है और नाव भी है. अभी एक आण्टी मुझे लेने आएगी,
और मैं उसके साथ इलेक्ट्रिक ट्रेन में जाऊँगा.”
तब मीश्का ने
कहा:
“क्या बात है! क्या ऐसा हो सकता है, कि तुम मुझे
भी ले चलो?”
मैं बहुत ख़ुश
हो गया, कि मीश्का भी हमारे साथ जाना चाहता है, उसके साथ तो मुझे ज़्यादा मज़ा आएगा,
सिर्फ अकेली मारिया पेत्रोव्ना के साथ तो वो बात नहीं होगी. मैंने कहा:
“इसमें बहस की क्या बात है! बेशक, हम ख़ुशी-ख़ुशी
तुझे ले चलेंगे! मारिया पेत्रोव्ना दयालु है, उसका क्या जाता है!”
अब मैं और
मीश्का दोनों इंतज़ार करने लगे. हम बाहर गली में निकले और बड़ी देर तक खड़े रहे और
इंतज़ार करते रहे. जैसे ही कोई औरत दिखाई देती, मीश्का ज़रूर पूछता:
“ये?”
एक मिनट बाद
फिर:
“ये वाली?”
मगर ये सब
अनजान औरतें थीं, और हम वहाँ खड़े-खड़े ‘बोर’ हो गए, इंतज़ार करते-करते थक गए.
मीश्का को
ग़ुस्सा आ गया और वो बोला:
“मैं ‘बोर’ हो गया!”
और वो चला गया.
मगर मैं इंतज़ार
करता रहा. मैं उसके आने तक इंतज़ार करना चाहता था. मैंने लंच तक उसका इंतज़ार किया. लंच
के दौरान पापा ने फिर से कहा, बस यूँ ही:
“तो ‘चिस्तीये लेक’ पर आ रहा है? सोच ले, वर्ना
मैं और मम्मा फ़िल्म देखने चले जाएँगे!”
मैंने कहा:
“मैं इंतज़ार करूँगा. आख़िर मैंने उससे वादा किया
था इंतज़ार करने का. ऐसा नहीं हो सकता कि वो आये ही नहीं.”
मगर वो नहीं
आई. उस दिन न तो मैं चिस्तीये लेक पर गया और न ही मैंने कबूतरों को देखा, और जब
पापा फ़िल्म देखकर वापस आए, तो उन्होंने मुझसे गेट से हटने को कहा. उन्होंने मुझे
कंधों से लिपटा लिया और जब हम घर जा रहे थे, तो कहा:
“ये सब तो ज़िन्दगी में तुझे मिलेगा ही... घास,
और नदी, और नाव, और कुत्ता... सब कुछ होगा, अपनी नाक हमेशा ऊँची रख!”
मगर मैं सोते
समय भी गाँव के बारे में, नाव के बारे में और छोटे से कुत्ते के बारे में ही सोचता
रहा, बस, जैसे मैं वहाँ मारिया पेत्रोव्ना के साथ नहीं, बल्कि मीश्का के साथ और
पापा के साथ या फिर
मीश्का और मम्मा के साथ था. समय गुज़रता रहा, और मैं मारिया पेत्रोव्ना के बारे में
बिल्कुल भूल गया. अचानक एक दिन, फ़रमाइए, क्या हुआ! दरवाज़ा खुलता है और वह ख़ुद
हाज़िर हो जाती है. कानों में झुमके ज़्व्याक-ज़्व्याक, और मम्मा के साथ च्मोक-च्मोक,
और पूरे क्वार्टर में सूखी और मीठी गंध, और सब बैठते हैं मेज़ पर और पीने लगते हैं
चाय. मगर मैं मारिया पेत्रोव्ना के पास नहीं गया, मैं अलमारी के पीछे बैठा रहा
क्योंकि मैं मारिया पेत्रोव्ना से ग़ुस्सा था.
और, वो ऐसे
बैठी थी, जैसे कुछ हुआ ही न हो, ये बड़े अचरज की बात थी! जब उसने अपनी पसन्द की चाय
पी ली, तो उसने यूँ ही, बिना बात के, अलमारी के पीछे देखा और मेरी ठोढ़ी पकड़ ली.
“तू ऐसा उखड़ा-उखड़ा क्यों लग रहा है?”
“कुछ नहीं,” मैंने जवाब दिया.
“चल, बाहर आ,” मारिया पेत्रोव्ना ने कहा.
“मुझे यहाँ भी अच्छा लगता है!” मैंने कहा.
तब वह ठहाका
मार के हँस पड़ी, और ठहाकों के कारण उसकी हर चीज़ झनझना रही थी, और जब हँसी ख़त्म
हुई, तो बोली:
“बता, मैं तुझे कौन सी गिफ्ट देने वाली हूँ...”
मैंने कहा:
“कुछ नहीं चाहिए!”
उसने कहा:
“तलवार नहीं चाहिए?”
मैंने कहा:
“कौन सी?”
”बुदेन्योव्स्क
(रोस्तोव प्रांत का एक भाग – अनु.) की. असली. टेढ़ी.”
ये हुई ना बात!
मैंने कहा:
“क्या आपके पास है?”
“है,” उसने कहा.
“और, क्या आपको उसकी ज़रूरत नहीं है?” मैंने
पूछा.
“किसलिए? मैं औरत हूँ, मैंने तो युद्ध की तरक़ीब
सीखी नहीं, मुझे क्या ज़रूरत है तलवार की? बेहतर है, कि मैं तुम्हें दे देती हूँ.”
उसकी ओर देखने
से पता चल रहा था, कि उसे तलवार का ज़रा भी अफ़सोस नहीं है. मैंने यक़ीन भी कर लिया
कि वो वाक़ई में दयालु है. मैंने पूछा:
“कब?”
“कल,” उसने कहा. “कल तू स्कूल से वापस आएगा, और
तलवार – यहाँ. ये यहाँ, मैं उसे सीधे तेरी कॉट पे रख दूँगी.”
“अच्छा, ठीक है,” मैंने कहा और अलमारी के पीछे
से बाहर आ गया, और मेज़ पर गया, उसके साथ चाय भी पी, और जब वो जाने लगी, तो उसे
दरवाज़े तक बिदा भी किया.
दूसरे दिन मैं
मुश्किल से स्कूल में बैठा और जैसे ही स्कूल ख़त्म हुआ, तीर की तरह घर भागा. मैं
भाग रहा था और हाथ हिला रहा था – हाथ में अदृश्य तलवार थी, और मैं फ़ासिस्टों को
काट रहा था, उनके बदन में तलवार घुसा रहा था, और अफ्रीका के काले बच्चों की रक्षा
कर रहा था, क्यूबा के सारे दुश्मनों को काट रहा था. मैं उन्हें कैबेज की तरह काट
रहा था. मैं भाग रहा था, घर में तलवार मेरा इंतज़ार कर रही थी, सचमुच की तलवार, और
मुझे मालूम था कि वॉलन्टीयर्स में नाम लिखाऊँगा, और चूँकि मेरे पास अपनी तलवार है,
तो मुझे ज़रूर ले लेंगे. और जब मैं भागते हुए कमरे के भीतर आया, तो मैं फ़ौरन अपनी
कॉट की ओर भागा. तलवार नहीं थी. मैंने तकिए के नीचे देखा, कम्बल के नीचे देखा, कॉट
के नीचे भी देखा. तलवार नहीं थी. नहीं थी तलवार. मारिया पेत्रोव्ना ने अपना वादा
पूरा नहीं किया था. तलवार कहीं भी नहीं थी. और, हो भी नहीं सकती थी.
मैं खिड़की के
पास गया. मम्मा ने कहा:
“हो सकता है, वो अभी भी आ जाए?”
मगर मैंने कहा:
“नहीं, मम्मा, वो नहीं आएगी. मुझे मालूम ही था.”
मम्मा ने कहा:
“तू कॉट के नीचे क्यों घुसा था?...”
मैंने उसे
समझाया:
“मैंने सोचा: हो सकता है, वो आई हो? समझ रही हो?
अचानक. इस बार.”
मम्मा ने कहा:
“समझ रही हूँ. चल, खा ले.”
और, वो मेरे
पास आई. मैंने कुछ खा लिया और फिर से खिड़की के पास खड़ा हो गया. कम्पाऊण्ड में जाने
को जी नहीं चाह रहा था.
और जब पापा आए,
तो मम्मा ने उन्हें सब कुछ बताया, और उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया. उन्होंने
अपनी शेल्फ से एक किताब निकाली और बोले:
“आ जा, ब्रदर, कुत्ते के बारे में ये बढ़िया
किताब पढेंगे. उसका नाम है “माइकल- जैरी का भाई”. जैक लण्डन ने लिखी है.
मैं जल्दी से
पापा के पास बैठ गया, और वो पढ़ने लगे. पापा बढ़िया पढ़ते हैं, एकदम वण्डरफुल! और
किताब भी बहुत कीमती थी. मैं पहली बार इतनी दिलचस्प कहानी सुन रहा था. कुत्ते के
एडवेन्चर्स. कैसे जहाज़ के एक छोटे अफ़सर ने उसे चुरा लिया. और वे ख़ज़ाना ढूँढ़ने के
लिए जहाज़ में जाते हैं. जहाज़ के मालिक हैं तीन अमीर. उन्हें रास्ता दिखा रहा था एक
बूढ़ा नाविक, वो बीमार था और अकेला था, उसने कहा कि वो ख़ज़ाने का पता जानता है, और
उसने इन तीन अमीरों से वादा किया कि उनमें से हरेक को हीरे-जवाहरात का एक एक ढेर
मिलेगा, इस वादे के ऐवज़ में अमीरों ने बूढ़े नाविक को खिलाया-पिलाया. फिर अचानक पता
चला, कि जहाज़ तो खज़ाने की जगह तक जा ही नहीं सकता, क्योंकि पानी बेहद उथला है. ये
भी बूढ़े नाविक की चाल थी. और अमीरों को ख़ाली हाथ वापस लौटना पड़ा. इस बेईमानी से
बूढ़े नाविक ने अपने लिए खाना पा लिया, क्योंकि वो ज़ख़्मी, ग़रीब बूढ़ा था.
जब हमने ये
किताब ख़त्म की और फिर से उसके बारे में बात करने लगे, तो पापा अचानक हँस पड़े और
बोले:
“और ये बूढ़ा नाविक तो फिर भी अच्छा है! वो सिर्फ
बेईमान ही है, तेरी मारिया पेत्रोव्ना जैसा.”
मगर मैंने कहा:
“तुम क्या कह रहे हो, पापा! बिल्कुल उसके जैसा
नहीं है. बूढ़े नाविक ने अपनी ज़िन्दगी बचाने के लिए धोखा दिया. वो बिल्कुल अकेला जो
था, बीमार भी था. मगर मारिया पेत्रोव्ना? क्या वो बीमार है?”
“तन्दुरुस्त है,” पापा ने कहा.
“हाँ,” मैंने कहा. “अगर बूढ़ा नाविक झूठ न बोलता,
तो वो बेचारा, किसी पोर्ट पे मर जाता, नंगी चट्टानों के ऊपर, पेटियों और गाठों के
बीच में, बर्फ़ीली हवा और धुँआधार बारिश के नीचे. उसके सिर पर तो कोई छत नहीं थी
ना! मगर मारिया पेत्रोव्ना के पास तो बढ़िया कमरा है – अठारह वर्ग मीटर्स का, सारी
सुविधाओं के साथ. और कितने सारे झुमके, बालियाँ और चेन्स हैं उसके पास!”
“क्योंकि वो स्वार्थी बुर्जुआ है” पापा ने कहा.
और हालाँकि मैं
नहीं जानता था कि ‘स्वार्थी बुर्जुआ’ क्या होता है, मगर पापा की आवाज़ से मैं समझ
गया कि ये कोई बुरी चीज़ है, और मैंने उनसे कहा:
“मगर बूढ़ा नाविक भला था: उसने अपने बीमार
पेट्टी-ऑफ़िसर की जान बचाई – ये हुई पहली बात. और, तुम सोचो, पापा, वो सिर्फ दुष्ट
अमीरों को ही धोखा देता है, जबकि मारिया पेत्रोव्ना ने – मुझे धोखा दिया है. बताओ,
वह मुझे क्यों धोखा देती है? क्या मैं अमीर हूँ?”
“चल, तू भूल भी जा,” मम्मा ने कहा, “इतना परेशान
होने की ज़रूरत नहीं है!”
पापा ने उसकी
तरफ़ देखा, सिर हिलाया और ख़ामोश हो गए. हम दोनों दीवान पर ख़ामोश लेटे रहे, उनके पास
मुझे गर्माहट महसूस हो रही थी, और मुझे नींद आने लगी, मगर फिर भी सोने से पहले मैंने
सोचा:
“नहीं, इस ख़तरनाक मारिया पेत्रोव्ना का मेरे भले,
दयालु बूढ़े नाविक से कोई मुक़ाबला ही नहीं है!”
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