शुक्रवार, 30 अगस्त 2013

Golden Words

     सुनहरे अक्षर
लेखक: मिखाइल जोशेन्का
अनु.: आ. चारुमति रामदास

जब मैं छोटा था तो मुझे बड़ों के साथ बैठकर डिनर करना बहुत अच्छा लगता था. और मेरी बहन ल्योल्या को भी ये पार्टियाँ बहुत पसन्द थीं. इसकी पहली वजह तो ये थी कि मेज़ पर तरह-तरह के व्यंजन रखे जाते थे. पार्टियों की ये बात हमें ख़ास कर आकर्षित करती थी. दूसरी बात ये, कि हर बार बड़े लोग अपनी ज़िन्दगी के दिलचस्प किस्से सुनाया करते. ये बात भी मुझे और ल्योल्या को बड़ी मज़ेदार लगती थी. बेशक, पहले-पहले तो हम मेज़ पर चुपचाप बैठा करते थे. मगर फिर हमारी हिम्मत बढ़ने लगी. ल्योल्या ने बातचीत में अपनी नाक घुसाना शुरू कर दिया. बिना रुके बोलती जाती. और मैं भी कभी कभी अपने कमेंट्स घुसेड़ देता. हमारे कमेंट्स मेहमानों को हँसाते. और मम्मा और पापा भी शुरू में तो ख़ुश ही थे, कि मेहमान हमारी बुद्धिमत्ता और हमारी प्रगति को देख रहे हैं.

मगर फिर एक पार्टी के समय देखिए क्या हुआ:
पापा के डाइरेक्टर ने एक किस्सा सुनाना शुरू किया जिस पर किसी को यक़ीन नहीं हो सकता था. किस्सा इस बारे में था कि उसने आग बुझाने वाले को कैसे बचाया. इस आग बुझाने वाले का आग में दम ही घुट गया था, मगर पापा के डाइरेक्टर ने उसे आग से बाहर खींच लिया. हो सकता है कि ऐसा हुआ हो, मगर बस, मुझे और ल्योल्या को ये कहानी पसन्द नहीं आई.
और ल्योल्या तो मानो काँटों पर बैठी हो. ऊपर से उसे इसी तरह का एक किस्सा याद आ गया, जो काफ़ी दिलचस्प था. उसका दिल कर रहा था कि जल्दी से उस किस्से को सुना दे, जिससे कि भूल न जाए. मगर पापा के डाइरेक्टर, जैसे जानबूझ कर बेहद धीरे धीरे अपना किस्सा सुना रहे थे. ल्योल्या से और बर्दाश्त नहीं हुआ. उनकी ओर हाथ झटक कर वो बोली: “इसमें क्या है! हमारे कम्पाउंड में एक लड़की...”
ल्योल्या अपनी बात पूरी नहीं कर पाई क्योंकि मम्मा ने  उसे ‘श् श्!’ किया. और पापा ने भी कड़ी नज़र से उसकी ओर देखा.

पापा के डाइरेक्टर का मुँह गुस्से से लाल हो गया. उन्हें अच्छा नहीं लगा कि उनकी कहानी के बारे में ल्योल्या ने कहा, ‘इसमें क्या है!’
मम्मा-पापा से मुख़ातिब होते हुए उन्होंने कहा, “मुझे समझ में नहीं आता कि आप बच्चों को बड़ों के साथ क्यों बिठाते हैं. वो मेरी बात काटते हैं. और अब मैं अपनी कहानी का सिरा ही खो बैठा. मैं कहाँ रुका था?
ल्योल्या ने बात को संभालने के लिए कहा: “आप वहाँ रुके थे, जब दम घुट चुके आदमी ने आपसे कहा था, ‘थैंक्यू’. मगर कितनी अजीब बात है, कि वह कुछ कह तो सका, जबकि उसका दम घुट गया था, और वह बेहोश था.... हमारे कम्पाउण्ड में एक लड़की...”
ल्योल्या अपने संस्मरण को पूरा नहीं कर पाई, क्योंकि उसे मम्मा से एक झापड़ मिल गया.
मेहमान मुस्कुराने लगे. मगर पापा के डाइरेक्टर का मुँह गुस्से से और भी लाल हो गया. ये देखकर कि परिस्थिति विकट है, मैंने बात संभालने की सोची. मैंने ल्योल्या से कहा: “ पापा के डाइरेक्टर ने जो कहा उसमें कुछ भी अजीब नहीं है. निर्भर करता है कि दम घुटे इन्सान कैसे हैं, ल्योल्या. दूसरे आग बुझाने वाले, जिनका आग में दम घुट जाता है, हालाँकि बेहोश पड़े होते हैं, मगर फिर भी वे बोल सकते हैं. वे बड़बड़ाते हैं. और ख़ुद ही समझ नहीं पाते कि वे क्या कह रहे हैं...जैसे कि इसने कहा – ‘थैंक्यू’. और , हो सकता है कि वो कहना चाहता था – ‘सेक्यूरिटी!’ मेहमान हँस पड़े. और पापा के डाइरेक्टर, गुस्से से थरथराते हुए, मेरे मम्मा-पापा से बोले:
 “आप अपने बच्चों को बुरी शिक्षा दे रहे हैं. वे मुझे बोलने ही नहीं दे रहे – पूरे टाइम अपनी बेवकूफ़ टिप्पणियों से मेरी बात काट देते हैं. दादी ने , जो मेज़ के आख़िर में समोवार के पास बैठी थी, ल्योल्या की ओर देखते हुए गुस्से से कहा,  “देखिए, अपने बर्ताव पर माफ़ी मांगने के बदले – ये छोकरी फिर से खाने पर टूट पड़ी है. .देखिए, इसकी भूख भी नहीं मरी है – दो आदमियों का खाना खा रही है...”  दादी का प्रतिवाद करने की ल्योल्या की हिम्मत नहीं हुई. मगर वह धीरे से फुसफुसाई: “ आग में घी डाल रहे हैं.”
दादी ने ये शब्द नहीं सुने, मगर पापा के डाइरेक्टर ने, जो ल्योल्या की बगल में बैठे थे, ये सोचा कि ये बात उसके लिए कही गई है. जब उन्होंने सुना तो अचरज से उनका मुँह खुला रह गया. हमारे मम्मा-पापा की ओर देखते हुए उसने कहा: हर बार, जब मैं आपके यहाँ आने की तैयारी कर रहा होता हूँ और आपके बच्चों की याद आती है, तो, यक़ीन मानिए, आपके यहाँ आने को मेरा बिल्कुल जी नहीं करता.”
पापा ने कहा: “ इस बात को देखते हुए कि बच्चों ने वाक़ई में बेहद बदतमीज़ी की है और वे हमारी उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे हैं, मैं आज से उनके बड़ों के साथ डिनर करने पर पाबन्दी लगाता हूँ. वे अपनी चाय ख़त्म करें और अपने कमरे में जाएँ. सार्डीन ख़त्म करके मैं और ल्योला, मेहमानों के चुटकुलों और ठहाकों के बीच वहाँ से चले गए. और तबसे पूरे दो महीने हम बड़ों के बीच में नहीं बैठे. और दो महीने बीतने के बाद मैं और ल्योल्या अपने पापा को मनाने लगे कि वे हमें फिर से बड़ों के साथ डिनर पर बैठने की इजाज़त दें. और हमारे पापा, जो उस दिन बड़े अच्छे मूड में थे बोले:
 “ठीक है, मैं इजाज़त दूँगा, मगर इस शर्त की तुम लोग मेज़ पर कुछ भी नहीं बोलोगे. अगर एक भी लब्ज़ बोले – तो आगे से कभी भी बड़ों के साथ मेज़ पर नहीं बैठोगे.”
और एक ख़ूबसूरत दिन हम फिर से मेज़ पर हैं – बड़ों के साथ डिनर कर रहे हैं. उस दिन हम शांत और चुपचाप बैठे रहे. हमें अपने पापा का स्वभाव मालूम है. हमें मालूम है कि अगर हम आधा भी शब्द कहेंगे, तो हमारे पापा हमें कभी भी बड़ों के साथ बैठने नहीं देंगे.          
 मगर बोलने पर लगी इस पाबन्दी से फ़िलहाल मुझे और ल्योल्या को कोई फ़र्क नहीं पड़ रहा है. मैं और ल्योल्या मिलकर चार आदमियों का खाना खा रहे हैं और आपस में मुस्कुरा भी रहे हैं. हमें ऐसा लग रहा है कि हमें बात करने की इजाज़त न देकर बड़ों ने गलती की है. बातचीत से मुक्त हमारे मुँह पूरे समय बस खाने में व्यस्त हैं. मैंने और ल्योल्या ने जो सम्भव था, सब खा लिया और फिर हम स्वीट-डिश की ओर लपके. स्वीट-डिश खाने और चाय पीने के बाद, मैंने और ल्योल्या ने तय किया कि दूसरी सर्विंग पर भी हाथ साफ़ किया जाए – शुरू से सारी चीज़ें फिर से खाने का फ़ैसला किया, इसलिए भी कि हमारी मम्मा ने, यह देखकर कि मेज़ क़रीब क़रीब ख़ाली है, नए पकवान लाकर रख दिए. मैंने ‘बन’ उठाया और मक्खन का टुकड़ा काटा. मगर मक्खन तो पूरा जमा हुआ था – उसे अभी-अभी फ्रिज से निकाला गया था. इस जमे हुए मक्खन को मैं ‘बन’ पर लगाना चाहता था. मगर मुझसे यह हो नहीं पा रहा था. वह पत्थर की तरह जम गया था. और तब, मैंने मक्खन को चाकू की नोक पर रखा और उसे चाय के गिलास के ऊपर पकड़कर गरम करने लगा. और चूंकि अपनी चाय तो मैं पहले ही पी चुका था, तो मैं इस मक्खन के टुकड़े को पापा के डाइरेक्टर के गिलास के ऊपर गरम करने लगा, जो मेरी ही बगल में बैठे थे. पापा के डाइरेक्टर कुछ कह रहे थे और उन्होंने मेरी तरफ़ ध्यान नहीं दिया. इस बीच चाय के ऊपर पकड़ा हुआ चाकू गरम हो गया. मक्खन थोड़ा पिघला. मैं उसे ‘बन’ पर लगाना चाहता था और मैं गिलास से अपना हाथ हटा ही रहा था. मगर तभी मक्खन का टुकड़ा अचानक चाकू से फिसला और सीधा चाय में गिर गया. डर के मारे मैं मानो जम गया. आँखें फाड़े मैं मक्खन की ओर देखे जा रहा था, जो गरम चाय में धँस गया था. फिर मैंने दाँए-बाँए देखा. मगर मेहमानों में से किसी की भी इस हादसे पर नज़र नहीं पड़ी थी. सिर्फ ल्योल्या ने देख लिया था, कि क्या हुआ है. कभी मेरी ओर तो कभी चाय के गिलास की ओर देखते हुए वह हँसने लगी. वह और भी ज़ोर से हँसने लगी, जब पापा के डाइरेक्टर ने कोई किस्सा सुनाते हुए चम्मच से अपनी चाय हिलाना शुरू किया. वो बड़ी देर तक हिलाते रहे, जिससे पूरा मक्खन पिघल गया, उसका नामो निशान न बचा. और अब चाय मुर्गी के शोरवे जैसी हो गई थी. पापा के डाइरेक्टर ने गिलास हाथ में लिया और उसे अपने मुँह की ओर ले जाने लगे . और हाँलाकि ल्योल्या को ये देखने में बड़ी दिलचस्पी थी कि आगे क्या होता है और जब पापा के डाइरेक्टर इस भयानक चीज़ को मुँह में डालेंगे तो वो क्या करेंगे, मगर फिर भी वह थोड़ा घबरा ही गई थी. वह अपना मुँह खोलकर पापा के डाइरेक्टर से चिल्लाकर कहने ही वाली थी: “मत पीजिए!”. मगर पापा की ओर देखकर, और ये याद करके कि बोलना मना है, ख़ामोश रह गई.

और मैंने भी कुछ नहीं कहा. मैंने बस हाथ झटक दिए और एकटक पापा के डाइरेक्टर के मुँह की ओर देखने लगा. इस बीच पापा के डाइरेक्टर ने गिलास मुँह से लगाकर एक बड़ा घूंट ले लिया था. मगर तभी उनकी आँखें आश्चर्य से गोल-गोल हो गईं. वो ‘आह, आह’ करने लगे, अपनी कुर्सी पर उछलने लगे, मुँह खोला, लपक कर नैपकिन उठा लिया और खाँसने लगे और थूकने लगे.

हमारे मम्मा-पापा ने उनसे पूछा, “आपको क्या हो गया है?”

डर के मारे पापा के डाइरेक्टर एक लब्ज़ भी नहीं बोल पा रहे थे. उन्होंने उँगलियों से अपने मुँह की ओर इशारा किया, कुछ बुदबुदाए और भय से अपने गिलास की ओर देखने लगे.
अब वहाँ मौजूद सभी लोग बड़ी दिलचस्पी से गिलास में बची हुई चाय की ओर देखने लगे..
मम्मा ने इस चाय को देखने के बाद कहा, “घबराइए नहीं, ये साधारण मख्खन तैर रहा है चाय में , जो गरम चाय में पिघल गया है.

पापा ने कहा, “मगर पता तो चले कि वह चाय में गिरा कैसे. तो, बच्चों, अपने निरीक्षणों के बारे में हमें बताओ.”
बोलने की अनुमति पाकर ल्योल्या ने कहा, “मीन्का गिलास के ऊपर चाकू में मक्खन गरम कर रहा था, और वह गिर गया.” अब ल्योल्या अपने आप पर काबू न कर पाई और ठहाका मार कर हँस पड़ी. कुछ मेहमान भी हँसने लगे. मगर कुछ लोग संजीदा और फिक्रमन्द होकर अपने अपने गिलास देखने लगे.
पापा के डाइरेक्टर ने कहा, “ये तो मेहेरबानी हुई कि उन्होंने मेरी चाय में मक्खन ही डाला है. वे कोलतार भी डाल सकते थे. अगर ये कोलतार होता, तो मेरा क्या हाल होता. ओह, ये बच्चे तो मुझे पागल कर देंगे.”
एक मेहमान ने कहा, “मुझे तो दूसरी ही बात में दिलचस्पी है. बच्चों ने देखा कि मक्खन चाय में गिर गया है. फिर उन्होंने इस बारे में किसी को भी नहीं बताया. और ऐसी ही चाय पीने दी. ये ही उनका प्रमुख गुनाह है.”

ये शब्द सुनकर पापा के डाइरेक्टर चहके:
 “आह, वाक़ई में, शैतान बच्चे – तुम लोगों ने मुझे कुछ भी क्यों नहीं बताया. मैं तब वो चाय पीता ही नहीं...”
ल्योल्या ने हंसना रोक कर कहा: “हमें पापा ने मेज़ पर बोलने से मना किया है. इसीलिए हमने कुछ भी नहीं कहा. “
मैं आँसू पोंछकर बोला: “एक भी लब्ज़ बोलने से मना किया है पापा ने. वर्ना हम कुछ न कुछ ज़रूर कहते.”
पापा मुस्कुराए और बोले: “ ये शरारती नहीं, बल्कि बेवकूफ़ बच्चे हैं. बेशक, एक तरफ़ से ये अच्छी बात है कि वे बिना चूँ-चपड़ किए आदेशों का पालन करते हैं. आगे भी इसी तरह करना चाहिए – आदेशों का पालन करना चाहिए और प्रचलित नियमों के अनुसार काम करना चाहिए. मगर यह सब करते समय अपनी अक्ल भी इस्तेमाल करनी चाहिए. अगर कुछ न हुआ होता – तो चुप रहना आपका फ़र्ज़ था. मगर यदि मक्खन चाय में गिर गया, या दादी समोवार की टोंटी बन्द करना भूल गई – तो आपको चिल्लाना चाहिए. तब सज़ा के बदले आपको सब ‘थैंक्यू!’ कहते. हर काम बदली हुई परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए करना चाहिए. और ये शब्द सुनहरे अक्षरों में अपने दिल में लिख लेने चाहिए. वर्ना तो सब ऊटपटांग हो जायेगा.”
मम्मा ने कहा: “या, मान लो, मैं तुमसे कहती हूँ कि फ्लैट से बाहर मत निकलना. अचानक आग लग जाती है. तब, बेवकूफ़ बच्चों, तुम क्या फ्लैट में रुके रहोगे, जब तक कि जल नहीं जाते? बल्कि, तुम्हें तो उछल कर फ्लैट से बाहर भागना चाहिए और हल्ला-गुल्ला मचाना चाहिए.”
दादी ने कहा:
 “या, मान लो, मैंने सबकी प्यालियों में दुबारा चाय डाली है. मगर ल्योल्या के गिलास में नहीं डाली. मतलब, मैंने सही काम किया है.”
यहाँ ल्योल्या को छोड़कर सब हँस पड़े. मगर पापा ने दादी से कहा, “आपने बिल्कुल सही नहीं किया, क्योंकि परिस्थिति फिर से बदल गई है. ये स्पष्ट हो गया है कि बच्चे बेक़सूर हैं. अगर उनका कोई क़सूर है भी, तो वो है उनकी बेवकूफ़ी...आपसे विनती करते हैं, दादी कि ल्योल्या के गिलास में चाय डाल दीजिए.”
सारे मेहमान हँसने लगे. और मैं और ल्योल्या तालियाँ बजाने लगे.
मगर, पापा के शब्द, मैं मानता हूँ, कि फ़ौरन समझ नहीं पाया.

मगर बाद में मैं उनका मतलब समझ गया और इन सुनहरे शब्दों को मैं बेशकीमती मानने लगा.
और इन शब्दों का, प्यारे बच्चों, मैंने जीवन के हर मोड़ पर पालन किया है. अपने व्यक्तिगत मामलों में. और युद्ध के दौरान. और, सोचो, अपने काम में भी.

मेरे लेखन कार्य में, मैं, मिसाल के तौर पर, पुराने, महान लेखकों से लिखने की कला सीखा था. उनके नियमों का पालन करते हुए लिखने का बड़ा चाव था. मगर मैंने देखा कि परिस्थिति बदल गई है. जीवन अब वैसा नहीं है जैसा उनके ज़माने में था, और जनता भी अब वैसी नहीं रही. इसलिए मैंने उन नियमों की नकल नहीं की.
और, हो सकता है कि इसीलिए मैंने लोगों को इतना दुख नहीं पहुँचाया. और कुछ हद तक मैं सुखी ही रहा.
पुराने ज़माने में एक विद्वान आदमी ने (जिसे सूली पर चढ़ा दिया गया था) कहा था, “किसी भी आदमी को उसकी मृत्यु से पहले सुखी नहीं कहना चाहिए.”
ये भी सुनहरे शब्द थे.

...                               

सोमवार, 26 अगस्त 2013

One should have Sense of Humour

मज़ाक का माद्दा होना चाहिए

लेखक: विक्टर द्रागून्स्की
अनु: आ. चारुमति रामदास

एक बार मैं और मीश्का होमवर्क कर रहे थे. हमने अपने सामने नोट-बुक्स रख लीं और किताब में से लिखने लगे. साथ ही साथ मैं मीश्का को लंगूरों के बारे में भी बता रहा था, कि उनकी बड़ी-बड़ी आँखें होती हैं, जैसे कंचे, और ये कि मैंने लंगूर की तस्वीर भी देखी है, कैसे उसने बॉल-पेन पकड़ रखा था, खुद तो बहुत छोटा-छोटा था और बड़ा प्यारा था. 
फिर मीशा ने कहा:
 “लिख लिया?”
मैंने कहा:
“कब का.”
”तू मेरी नोट-बुक जाँच ले,” मीश्का ने कहा, “और मैं – तेरी.”
और हमने नोट-बुक्स बदल लीं.
और जैसे ही मैंने देखा कि मीश्का ने क्या लिखा है, तो एकदम हँसने लगा.
देखता क्या हूँ – मीश्का भी हँस-हँस के लोटपोट हुआ जा रहा हि, हँसते-हँसते वह नीला पड़ गया.
 “ मीश्का, ये तू लोट-पोट क्यों हो रहा हि?”
और वह बोला:
 “मैं इसलिए लोट-पोट हो रहा हूँ, क्योंकि तूने गलत-सलत लिख लिया है! और तू क्यों हँस रहा है?”
मैंने जवाब दिया:
 “मैं भी इसीलिए, बस, तेरे बारे में. देख, तूने लिखा है : “बफ गिरने लगी”. ये - “बफ” कौन है?”
 मीश्का लाल हो गया:
 “बफ – शायद , बर्फ है. और देख, तूने लिखा है: ‘सर्दियाँ आ पची.’ ये क्या है?”
 “हाँ,” मैंने कहा, “ – ‘पची’ नहीं, बल्कि ’पहुँची’. कुछ नहीं कर सकते, फिर से लिखना पड़ेगा. ये सब लंगूरों की वजह से हुआ.”
और हम दुबारा लिखने लगे. और जब पूरा लिख लिया तो मैंने कहा:
  “चल सवाल पूछते हैं!”
 “चल,” मीश्का ने कहा.
इसी समय पापा आए. उन्होंने कहा :
 “हैलो, कॉम्रेड स्टुडेंट्स...”
और वो मेज़ के पास बैठ गए.
मैंने कहा:
 “लो, सुनो, पापा, मैं मीश्का से कैसा सवाल पूछता हूँ : मान ले, मेरे पास दो एपल्स हैं, और हम तीन लोग हैं, तो उन्हें तीनों में बराबर-बराबर कैसे बाँटना चाहिए?”
मीश्का ने फ़ौरन गाल फुला लिए और सोचने लगा. पापा ने गाल नहीं फुलाए, मगर वो भी सोचने लगे. वे बड़ी देर तक सोचते रहे.
फिर मैंने कहा:
 “हार गया, मीश्का?”
मीश्का ने कहा:
 “हार गया!”
मैंने कहा:
 “ हम तीनों को बराबर-बराबर हिस्सा मिले इसलिए इन एपल्स का स्ट्यू बनाना चाहिए.” और मैं ठहाके लगाने लगा : “ये मुझे मीला बुआ ने सिखाया था!...”
मीश्का ने और भी गाल फुला लिए. तब पापा ने अपनी आँखें सिकोड़ीं और कहा:
 “डेनिस, अगर तो इतना चालाक है, तो चल, मैं तुझसे सवाल पूछूँगा.”
 “पूछो, पूछो!” मैंने कहा.
पापा कमरे में घूमने लगे.
 “तो, सुन,” पापा ने का, “ एक लड़का क्लास पहली ‘बी’ में पढ़ता है. उसके परिवार में पाँच लोग हैं. मम्मा सात बजे उठती है और कपड़े पहनने में दस मिनट खर्च करती है. फिर पाँच मिनट पापा ब्रश करते हैं. दादी दुकान जाकर आने में उतना समय लगाती है जितना मम्मा कपड़े पहनने में प्लस पापा ब्रश करने में लगाते हैं. और दादा जी अख़बार पढ़ते हैं – उतनी देर, जितनी देर दादी दुकान में लगाती है, मायनस, जितने बजे मम्मा उठती है.        
जब वे सब इकट्ठे होते हैं तो वे इस पहली ‘बी’ क्लास के लड़के को उठाना शुरू करते हैं. इस पर उतना समय लगता है जितने में दादा जी अख़बार पढ़ते हैं , प्लस दादी दुकान जाकर आती है.
जब पहली ‘बी’ क्लास का लड़का उठता है, तो वह उतनी देर अलसाता रहता है, जितने में मम्मा कपड़े पहनती है प्लस पापा ब्रश करते हैं. और वह नहाता उतनी देर है जितनी देर दादा जी अख़बार पढ़ते  हैं डिवाइडेड बाइ दादी दुकान जाकर आती है. स्कूल में वह इतना लेट पहुँचता है, जितना समय अलसाने में लेता है प्लस नहाता है माइनस मम्मा का उठना मल्टिप्लाईड बाय पापा का ब्रश करना.

सवाल ये है: ये पहली ’बी’ क्लास का लड़का कौन है और अगर उसका काम इसी तरह चलता रहा तो उसे किस बात का ख़तरा है? बस!”
यहाँ पापा कमरे के बीच में खड़े हो गए और मेरी ओर देखने लगे. और मीश्का ज़ोर से ठहाका मारते हुए हँसने लगा और वह भी मेरी ओर देखने लगा. वे दोनों मेरी ओर देख रहे थे और ठहाके लगा रहे थे.
मैंने कहा:
 “ये सवाल मैं एकदम से नहीं हल कर सकता, क्योंकि हमने अभी तक ऐसे सवाल किए नहीं हैं.”
इसके अलावा मैंने एक भी लब्ज़ नहीं कहा और कमरे से निकल गया, क्योंकि मुझे फ़ौरन इस बात का अन्दाज़ा हो गया था कि इस सवाल के जवाब में निकलता है एक आलसी लड़का और उसे जल्दी ही स्कूल से भगा दिया जाएगा. मैं कमरे से निकल कर कॉरीडोर में आया और हैंगर के पीछे चला गया और सोचने लगा कि अगर ये सवाल मेरे बारे में है, तो ये सही नहीं है, क्योंकि मैं हमेशा फ़ौरन उठ जाता हूँ और बस थोड़ी ही देर अलसाता हूँ, बस उतना ही, जितना ज़रूरी है. और मैंने ये भी सोचा कि अगर पापा को मेरे बारे में इस तरह कहानियाँ बनानी हैं, तो, ठीक है, मैं घर से चला जाऊँगा – सीधे बंजर धरती पर. वहाँ हमेशा काम मिल जाता है, वहाँ लोगों की ज़रूरत रहती है, ख़ासकर नौजवानों की. मैं वहाँ प्रकृति को सँवारूंगा., और पापा अपने डेलिगेशन के साथ अल्ताय प्रदेश में आएँगे, मुझे देखेंगे, और मैं एक मिनट रुक कर कहूँगा:
 “नमस्ते, पापा,” और आगे चल पडूँगा ज़मीन सँवारने.
और वो कहेंगे:
 “मम्मा तुझे प्यार भेजती है...”
और मैं कहूँगा:
 “थैंक्यू... कैसी है मम्मा?”   
और वो कहेंगे:
 “ठीक है.”
और मैं कहूँगा:
 “शायद वह अपने इकलौते बेटे को भूल गई है?”
और वो कहेंगे:
 “क्या बात करता है, उसका वज़न सैंतीस किलो कम हो गया है! इतना याद करती है!”

और आगे मैं उनसे क्या कहूँगा, मैं सोच नहीं पाया, क्योंकि मुझ पर एक ओवरकोट गिरा और पापा अचानक हैंगर के पीछे घुसे. उन्होंने मुझे देखा और बोले:
 “आह, तो तू यहाँ है! ये तेरी आँखों को क्या हुआ है? कहीं तूने इस सवाल को अपने ऊपर तो नहीं ले लिया?”
उन्होंने कोट उठाकर जगह पर टाँग दिया और आगे कहा:
 “ये सब तो मैंने बस सोचा था. ऐसा बच्चा तो इस पूरी दुनिया में है ही नहीं, तेरी क्लास की तो बात ही नहीं है!”
और पापा ने हाथ पकड़ कर मुझे हैंगर्स के पीछे से बाहर निकाला.
फिर उन्होंने एक बार और एकटक मेरी ओर देखा और मुस्कुराए:
 “इन्सान में मज़ाक का माद्दा होना चाहिए,” उन्होंने मुझसे कहा और उनकी आँखों में प्यारी-प्यारी मुस्कुराहट तैर गई. “ मगर, था ये मज़ाहिया सवाल, है ना? तो! अब हँस भी दे!”
और मैं हँस पड़ा.
और वो भी.
और हम कमरे में गए.
....
  

शनिवार, 24 अगस्त 2013

Voh Zinda Hai....


“वो ज़िन्दा है और चमक रहा है...”

लेखक: विक्टर द्रागून्स्की
अनु: आ. चारुमति रामदास

एक बार शाम को मैं आँगन में बैठा था, बालू के पास, और मम्मा का इंतज़ार कर रहा था. वह, शायद इंस्टिट्यूट में, या दुकान में अटक गई थी, या, हो सकता है कि उसे काफ़ी देर तक बस स्टॉप पर खडे रहना पड़ा हो. मालूम नहीं. सिर्फ हमारे आँगन में सभी के मम्मा-पापा आ चुके थे, और बच्चे उनके साथ अपने-अपने घर चले गए थे और, हो सकता है ब्रेड-रिंग्स और चीज़ के साथ चाय भी पी रहे हों, मगर मेरी मम्मा अभी तक नहीं आई थी...
अब तो खिड़कियों में रोशनी भी होने लगी, और रेडिओ से म्यूज़िक सुनाई देने लगा, और आसमान में काले बादल चलने लगे – वे दाढ़ी वाले बूढ़ों जैसे लग रहे थे...
मुझे भूख भी लग रही थी, मगर मम्मा का तो पता ही नहीं था, और मैं सोच रहा था कि अगर मुझे ये मालूम होता कि मेरी मम्मा को भूख लगी है और वह दुनिया के किसी कोने में मेरा इंतज़ार कर रही है, तो मैं फ़ौरन दौड़ता हुआ उसके पास आ जाता, बिल्कुल देर नहीं करता और उसे बालू पर बैठकर इंतज़ार करने और ‘बोर’ होने पर मजबूर न करता.    

इसी समय मीश्का आँगन में निकला. उसने कहा:
 “हैलो!”
और मैंने भी जवाब दिया:
 “हैलो!”
मीश्का मेरी बगल में बैठ गया और डम्प-ट्रक लेकर देखने लगा.
 “ओ हो!” मीश्का ने कहा. “कहाँ से लिया? और क्या ये ख़ुद बालू इकट्ठा करता है? ख़ुद नहीं करता? और ख़ुद गिराता है? हाँ? और हैण्डल? ये किसलिए? इसे घुमा सकते हैं? हाँ? ओ हो! मुझे घर ले जाने देगा?”
मैंने  कहा :
 “नहीं, नहीं दूँगा. गिफ्ट है. पापा ने जाने से पहले मुझे दिया था.”

मीश्का ने मुँह फुला लिया और मुझसे दूर हट गया. आँगन में अंधेरा और गहरा हो गया.
मैं गेट की तरफ़ ही देख रहा था जिससे कि मम्मा के आने का मुझे फ़ौरन पता चल जाए. मगर वह आ ही नहीं रही थी. ज़ाहिर है कि उसे रोज़ा आंटी मिल गई हो, और वे दोनों खड़े होकर बातें कर रही हों, और मेरे बारे में सोच भी नहीं रही हों. मैं बालू पर लेट गया.

मीश्का ने कहा:
”डम्प-ट्रक नहीं देगा?”
 “छोड़ ना, मीश्का.”
तब मीश्का ने  कहा:
”इसके बदले मैं तुझे एक ग्वाटेमाला और दो बार्बादोस दूँगा!”
मैंने कहा:
  “ ले, कर ले मुकाबला डम्प-ट्रक का बार्बादोस से...”
और मीश्का बोला:
 “अच्छा, मैं तुझे स्विमिंग-रिंग दूँ?”
मैंने कहा:
 “तेरी रिंग तो फूटी हुई है.”
मीश्का पीछे हटने को तैयार नहीं था:
 “तू उसे चिपका लेना!”
मुझे गुस्सा भी आ गया.
 “और तैरूँगा कहाँ? बाथरूम में? हर मंगलवार को? ”
मीश्का ने फिर से मुँह फुला लिया. मगर फिर बोला:
 “चल, जो चाहे सो हो! तू भी क्या याद करेगा! ले!”
और उसने मेरी ओर माचिस की डिबिया बढ़ाई. मैंने उसे ले लिया.
 “तू इसे खोलकर देख,” मीश्का ने कहा, “तब पता चलेगा!”
मैंने डिबिया खोली. शुरू में तो मुझे कुछ भी नज़र नहीं आया, मगर फिर देखी हल्की-हरी रोशनी, जैसे कि दूर, मुझसे बहुत दूर एक नन्हा-सा तारा चमक रहा है, और साथ ही मैं उसे अपने हाथों में पकड़े हुए हूँ.
 “ये क्या है, मीश्का,” मैंने फुसफुसाकर कहा, “ये क्या चीज़ है?”
 “ये जुगनू है,” मीश्का ने कहा. क्यों, अच्छा है ना? ये ज़िन्दा है, फिकर न कर.”
 “मीश्का,” मैंने कहा, “मेरा डम्प-ट्रक ले ले, लेना है? हमेशा के लिए ले ले, हमेशा के लिए! मगर मुझे ये नन्हा सितारा दे दे, मैं इसे घर ले जाऊँगा...”
मीश्का ने लपक कर मेरा डम्प-ट्रक ले लिया और घर भाग गया. मैं अपने जुगनू के साथ रह गया, उसकी ओर देखता रहा, देर तक देखता रहा, मगर जी ही नहीं भर रहा था: कैसा हरा-हरा है ये, जैसे किसी फेयरी-टेल में हो, और कैसे ये, हाँलाकि पास ही है, हथेली पर, मगर चमक इस तरह से रहा है, जैसे बहुत दूर हो...मैं ठीक से साँस नहीं ले पा रहा था, और मैं सुन रहा था कि मेरा दिल कैसे धड़क रहा है, और कोई चीज़ हौले-हौले नाक में चुभ रही थी, जैसे मैं बस रोने ही वाला हूँ.
मैं बड़ी देर तक इसी तरह बैठा रहा, खू-ऊ-ऊ-ऊ-ब देर तक. चारों ओर कोई भी नहीं था. मैं दुनिया की हर चीज़ के बारे में भूल गया था.
मगर तभी मम्मा आ गई मैं बहुत ख़ुश हो गया और हम घर की ओर चले. और जब हम ब्रेड-रिंग्ज़ और चीज़ के साथ चाय पीने लगे, तो मम्मा ने पूछा:
 “तो, क्या कहता है तेरा डम्प-ट्रक?”
और मैंने कहा:
 “मम्मा, मैंने उसे बदल लिया.”
मम्मा ने कहा:
”बहुत अच्छे! किस चीज़ से बदल लिया?”
मैंने जवाब दिया:
 “जुगनू से! ये रहा वो, डिबिया में रहता है. लाइट बन्द करो ना!”
और मम्मा ने लाइट बन्द कर दी, कमरे में अंधेरा हो गया, और हम दोनों मिलकर हल्के-हरे सितारे की ओर देखने लगे.
फिर मम्मा ने लाइट जला दी.
 “हाँ,” उसने कहा, “ये जादू है! मगर तूने अपनी इतनी कीमती चीज़ – डम्प-ट्रक, इस कीड़े से कैसे बदल ली?”
 “मैं इतनी देर से तुम्हारा इंतज़ार कर रहा था,” मैंने कहा, “मुझे इतना बुरा लग रहा था, और ये जुगनू, मुझे दुनिया के हर डम्प-ट्रक से ज़्यादा अच्छा लगा.”
मामा ने एकटक मेरी ओर देखा और पूछा:
 “ये ज़्यादा अच्छा क्यों लगा?”
मैंने  जवाब दिया:
”तुम समझ क्यों नहीं रही हो, मम्मा?! ये ज़िन्दा है! और चमक रहा है!...”
....
     

  

गुरुवार, 22 अगस्त 2013

Paiband

पैबन्द

लेखक : निकोलाय नोसोव
अनु. : आ. चारुमति रामदास


बोब्का के पास एक बहुत बढ़िया पतलून थी : हरी-हरी, सही में कहें तो मिलिट्री कलर की. बोब्का को वह बहुत पसन्द थी और वह हमेशा शेखी मारता था:
“देखो, लड़कों, कैसी बढ़िया है मेरी पतलून! फ़ौजियों जैसी!”
सारे लड़कों को जलन होती थी. और किसी के भी पास ऐसी हरी पतलून नहीं थी.
एक बार बोब्का फेन्सिंग फाँद रहा था, कील से उलझ गया और उसकी ये लाजवाब पतलून फट गई. दुख के मारे वह रोने-रोने को हो गया, फ़ौरन घर गया और मम्मा से विनती करने लगा कि पतलून सिल से.
मम्मा बहुत गुस्सा हो गई:
 “तू फेन्सिंग पर चढ़ता जा, पतलूनें फाड़ता जा, और मैं उन्हें सीती रहूँ?”
 “मैं आगे से नहीं करूँगा! सिल दो न, मम्मा!”
 “ख़ुद ही सी ले.”
 “मगर मुझे आता नहीं है ना.”
 “फ़ाड़ना सीखा है, तो सिलना भी सीख.”
 “अच्छा, मैं ऐसे ही घूमूँगा,” बोब्का भुनभुनाया और वह बाहर आँगन में चला गया.

बच्चों ने देखा कि उसकी पतलून में छेद है, और वे हँसने लगे.
 “कैसा फ़ौजी है तू,” वे कहते हैं, “तेरी तो पतलून ही फटी है?”
बोब्का सफ़ाई देने की कोशिश करता है:
 “मैंने मम्मा से सिल देने को कहा था, वो नहीं सीना चाहती.”
 “क्या फ़ौजियों की पतलूनें उनकी मम्मियाँ सीती हैं?” बच्चे कहते हैं. “फौजी को सब कुछ ख़ुद करते आना चाहिए : पैबन्द भी लगाना आना चाहिए और बटन भी लगाना आनी चाहिए.”
बोब्का शर्मिन्दा हो गया.
वह घर गया , मम्मा से सुई मांगी, धागा मांगा और हरे कपड़े का टुकड़ा भी मांगा. कपड़े से उसने छोटे से खीरे जितना पैबन्द का टुकड़ा काटा और उसे पतलून पर सीने लगा.
ये काम आसान नहीं था. ऊपर से बोब्का जल्दी में था और उसने कई बार उँगलियों में सुई भी चुभा ली.
 “तू ऐसे बार-बार चुभ क्यों रही है? आह, तू, घिनौनी कहीं की!” बोब्का सुई पर चिल्लाया और उसे बिल्कुल नोक से पकड़ने की कोशिश करने लगा, जिससे वो चुभे नहीं.
आख़िरकार पैबन्द लग ही गया. वो पतलून पर लटक रहा था, जैसे सुखाया हुआ कुकुरमुत्ता हो, और आसपास के कपड़े में इतनी झुर्रियाँ पड़ गईं कि पतलून का एक पैर भी छोटा हो गया.

 “आह, ये किस काम की है?”  पतलून की ओर देखते हुए बोब्का भुनभुनाया. “ पहले से भी बुरी हो गई है! फिर से सीना पड़ेगा.”
उसने चाकू लिया और पैबन्द को काट कर निकाल दिया. फिर उसे ठीक-ठाक किया, दुबारा पतलून पर रखा, बड़ी सफ़ाई से पैबन्द के चारों ओर स्केच पेन से गोल घेरा बनाया और उसे फिर से सीने लगा. इस बार उसने जल्दी नहीं मचाई : धीरे-धीरे, एकदम सही-सही...पूरे समय वह देखता रहा कि पैबन्द निशान से सरक न जाए.

वह बड़ी देर तक लगा रहा, नाक से सूँ-सूँ करता रहा, कराहता रहा; मगर जब काम पूरा कर लिया, तो पैबन्द की ओर देखना बड़ा प्यारा लग रहा था. वो एक-सा, सफ़ाई से और इतनी मज़बूती से सिला था कि उसे दाँतों से काट कर भी नहीं फाड़ सकते. 

आख़िरकार बोब्का ने पतलून पहनी और आँगन में आया. लड़कों ने उसे घेर लिया.
 “शाबाश!” वे बोले. “और पैबन्द पर, देखो, स्केच पेन से गोल निशान बना है. एकदम पता चल रहा है कि तूने खुद ही सिया है.”
और बोब्का घूम घूमकर दिखाने लगा जिससे सबको दिखाई पड़े और बोला:
 “ऐह, मुझे अभी बटन सीना भी सीखना है, मगर अफ़सोस कि अभी तक एक भी नहीं टूटी है!  कोई बात नहीं. कभी न कभी तो टूटेगी – ख़ुद ही सिऊँगा.”

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मंगलवार, 20 अगस्त 2013

Darpok Vasya

डरपोक वास्या

लेखक: मिखाईल जोशेन्का
अनु: आ. चारुमति रामदास

वास्का के पिता लुहार थे.
वे अपने कारखाने में काम किया करते. वहाँ वे नालें, हँसिए और कुल्हाडियाँ बनाते.
और वे हर रोज़ अपने घोड़े पर कारखाने जाते. उनके पास एक अच्छा-ख़ासा, काला घोड़ा था. वे उसे गाड़ी में जोतते और निकल जाते. शाम को वापस घर लौट आते.
और उनके छह साल के बेटे वास्या को थोड़ा बहुत घूमना-फिरना अच्छा लगता.

मिसाल के तौर पर, जैसे ही पिता घर लौटते, गाड़ी से उतरते, और वास्या फ़ौरन उसमें चढ़ जाता और सीधे जंगल तक जाकर आता.
पिता, ज़ाहिर है, उसे ऐसा करने की इजाज़त नहीं देते थे.
घोड़ा भी खुशी से इजाज़त नहीं देता था. और जब वास्या गाड़ी में चढ़ता, घोड़ा तिरछी नज़र से उसकी ओर देखता. पूँछ भी ज़ोर-ज़ोर से हिलाता – जैसे कह रहा हो, ‘उतर जा बच्चे, मेरी गाड़ी से.’ मगर वास्या हमेशा घोड़े को चाबुक मारा करता, और तब उसे थोड़ा दर्द होता और वह चुपचाप भागने लगता.
एक बार शाम को पिता घर लौटे. वास्या गाड़ी में चढ़ गया, घोड़े पर चाबुक बरसाए और आँगन से बाहर निकला सैर-सपाटा करने के लिए.

आज वह बड़े ख़तरनाक मूड में था – वह और आगे जाना चाहता था.
तो, वह जंगल से होकर जा रहा है और अपने काले घोड़े पर चाबुक बरसा रहा है, जिससे कि वह तेज़ भागे.
अचानक, मालूम है क्या हुआ, ऐसा लगा कि किसी ने कस के वास्या पीठ पर डंडा मारा!
वास्या हैरानी से उछल पड़ा. उसने सोचा कि ये उसके पिता हैं जिन्होंने उसे पकड़ लिया है और चाबुक से मारा है – कि बिना पूछे क्यों चला गया.
वास्या ने इधर-उधर देखा. देखा – कोई भी नहीं है.
तब उसने फिर से घोड़े पर चाबुक बरसाया. मगर लो, दुबारा किसी ने जम कर पीठ पर मारा.
वास्या ने फिर से इधर-उधर देखा. नहीं, कोई भी तो नहीं है. ये क्या अजीब बात हो रही है?
वास्या सोचने लगा, ‘ओय, अगर आसपास कोई नहीं तो मेरी पीठ पर कौन मार रहा है?’

हाँ, आपको बताना पड़ेगा कि जब वास्या जंगल से होकर जा रहा था, तो पेड़ से एक बड़ी सी डाल गिरकर पहिए पर गिरी. उसने पहिए को कस कर पकड़ लिया. और जैसे ही पहिया घूमता, डाल भी, ज़ाहिर है, वास्या की पीठ से टकराती.

वास्या को यह नहीं दिखाई दे रहा है. क्योंकि अंधेरा हो चुका है. और ऊपर से, वह थोड़ा डर भी गया था और किनारों पर देखना नहीं चाहता था.
वह सोचने लगा, ‘ ओय, हो सकता है, ये घोड़ा ही मुझे मार रहा हो. हो सकता है कि उसने मुँह से चाबुक पकड़ लिया हो और अब उसकी बारी है मुझ पर चाबुक बरसाने की.’
अब वह घोड़े से थोड़ा दूर भी हटा.
मगर जैसे ही वह पीछे हटा, डाल वास्का की पीठ पर नहीं बल्कि सिर पर बरसी.
वास्का ने लगाम छोड़ दी और डर के मारे लगा चिल्लाने.
और घोड़ा, चूँकि बेवकूफ़ नहीं था, मुड़ा और पूरी रफ़्तार से घर की ओर भागा.
अब पहिया तो और भी तेज़ घूमने लगा. और डाल दनादन् वास्का को मारने लगी...
ऐसे में तो न सिर्फ छोटा बच्चा बल्कि बड़ा आदमी भी घबरा जाए!
तो, घोड़ा भाग रहा है. और वास्या गाड़ी में लेटा पूरी ताक़त से चिल्ला रहा है. और डाल उसे धुनक रही है – कभी पीठ पर, तो कभी पैरों पर, तो कभी सिर पर.
वास्या चिल्ला रहा है:
 “ओय, पापा! ओय मामा! घोड़ा मुझे मार रहा है!”
मगर घोड़ा अचानक घर के पास आया और आँगन में रुक गया.
मगर वास्या गाड़ी में पड़ा है और नीचे उतरने से डर रहा है. पड़ा है, जानते हैं, और खाना भी नहीं खाना चाहता.
पिता आये घोड़े को खोलने. तब कहीं जाकर वास्या गाड़ी से उतरा. और तब अचानक उसने पहिये में देखी वो डाल जो उसे मार रही थी.
वास्या ने डाल को पहिए से अलग किया और इस डाल से घोड़े को मारने ही वाला था कि पिता ने कहा:
 “ये घोड़े को मारने की बेवकूफ़ी भरी आदत छोड़ दे. वह तुझसे ज़्यादा होशियार है और ख़ुद ही जानता है कि उसे क्या करना चाहिए.”
तब वास्या, अपनी पीठ सहलाते हुए, घर में गया और लेट गया. और रात को उसे सपना आया, कि जैसे घोड़ा उसके पास आता है और कहता है, “तो, डरपोक लड़के, कर लिया सैर-सपाटा?”
सुबह वास्या उठा और नदी पर मछली पकड़ने चला गया.


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