शुक्रवार, 30 अगस्त 2013

Golden Words

     सुनहरे अक्षर
लेखक: मिखाइल जोशेन्का
अनु.: आ. चारुमति रामदास

जब मैं छोटा था तो मुझे बड़ों के साथ बैठकर डिनर करना बहुत अच्छा लगता था. और मेरी बहन ल्योल्या को भी ये पार्टियाँ बहुत पसन्द थीं. इसकी पहली वजह तो ये थी कि मेज़ पर तरह-तरह के व्यंजन रखे जाते थे. पार्टियों की ये बात हमें ख़ास कर आकर्षित करती थी. दूसरी बात ये, कि हर बार बड़े लोग अपनी ज़िन्दगी के दिलचस्प किस्से सुनाया करते. ये बात भी मुझे और ल्योल्या को बड़ी मज़ेदार लगती थी. बेशक, पहले-पहले तो हम मेज़ पर चुपचाप बैठा करते थे. मगर फिर हमारी हिम्मत बढ़ने लगी. ल्योल्या ने बातचीत में अपनी नाक घुसाना शुरू कर दिया. बिना रुके बोलती जाती. और मैं भी कभी कभी अपने कमेंट्स घुसेड़ देता. हमारे कमेंट्स मेहमानों को हँसाते. और मम्मा और पापा भी शुरू में तो ख़ुश ही थे, कि मेहमान हमारी बुद्धिमत्ता और हमारी प्रगति को देख रहे हैं.

मगर फिर एक पार्टी के समय देखिए क्या हुआ:
पापा के डाइरेक्टर ने एक किस्सा सुनाना शुरू किया जिस पर किसी को यक़ीन नहीं हो सकता था. किस्सा इस बारे में था कि उसने आग बुझाने वाले को कैसे बचाया. इस आग बुझाने वाले का आग में दम ही घुट गया था, मगर पापा के डाइरेक्टर ने उसे आग से बाहर खींच लिया. हो सकता है कि ऐसा हुआ हो, मगर बस, मुझे और ल्योल्या को ये कहानी पसन्द नहीं आई.
और ल्योल्या तो मानो काँटों पर बैठी हो. ऊपर से उसे इसी तरह का एक किस्सा याद आ गया, जो काफ़ी दिलचस्प था. उसका दिल कर रहा था कि जल्दी से उस किस्से को सुना दे, जिससे कि भूल न जाए. मगर पापा के डाइरेक्टर, जैसे जानबूझ कर बेहद धीरे धीरे अपना किस्सा सुना रहे थे. ल्योल्या से और बर्दाश्त नहीं हुआ. उनकी ओर हाथ झटक कर वो बोली: “इसमें क्या है! हमारे कम्पाउंड में एक लड़की...”
ल्योल्या अपनी बात पूरी नहीं कर पाई क्योंकि मम्मा ने  उसे ‘श् श्!’ किया. और पापा ने भी कड़ी नज़र से उसकी ओर देखा.

पापा के डाइरेक्टर का मुँह गुस्से से लाल हो गया. उन्हें अच्छा नहीं लगा कि उनकी कहानी के बारे में ल्योल्या ने कहा, ‘इसमें क्या है!’
मम्मा-पापा से मुख़ातिब होते हुए उन्होंने कहा, “मुझे समझ में नहीं आता कि आप बच्चों को बड़ों के साथ क्यों बिठाते हैं. वो मेरी बात काटते हैं. और अब मैं अपनी कहानी का सिरा ही खो बैठा. मैं कहाँ रुका था?
ल्योल्या ने बात को संभालने के लिए कहा: “आप वहाँ रुके थे, जब दम घुट चुके आदमी ने आपसे कहा था, ‘थैंक्यू’. मगर कितनी अजीब बात है, कि वह कुछ कह तो सका, जबकि उसका दम घुट गया था, और वह बेहोश था.... हमारे कम्पाउण्ड में एक लड़की...”
ल्योल्या अपने संस्मरण को पूरा नहीं कर पाई, क्योंकि उसे मम्मा से एक झापड़ मिल गया.
मेहमान मुस्कुराने लगे. मगर पापा के डाइरेक्टर का मुँह गुस्से से और भी लाल हो गया. ये देखकर कि परिस्थिति विकट है, मैंने बात संभालने की सोची. मैंने ल्योल्या से कहा: “ पापा के डाइरेक्टर ने जो कहा उसमें कुछ भी अजीब नहीं है. निर्भर करता है कि दम घुटे इन्सान कैसे हैं, ल्योल्या. दूसरे आग बुझाने वाले, जिनका आग में दम घुट जाता है, हालाँकि बेहोश पड़े होते हैं, मगर फिर भी वे बोल सकते हैं. वे बड़बड़ाते हैं. और ख़ुद ही समझ नहीं पाते कि वे क्या कह रहे हैं...जैसे कि इसने कहा – ‘थैंक्यू’. और , हो सकता है कि वो कहना चाहता था – ‘सेक्यूरिटी!’ मेहमान हँस पड़े. और पापा के डाइरेक्टर, गुस्से से थरथराते हुए, मेरे मम्मा-पापा से बोले:
 “आप अपने बच्चों को बुरी शिक्षा दे रहे हैं. वे मुझे बोलने ही नहीं दे रहे – पूरे टाइम अपनी बेवकूफ़ टिप्पणियों से मेरी बात काट देते हैं. दादी ने , जो मेज़ के आख़िर में समोवार के पास बैठी थी, ल्योल्या की ओर देखते हुए गुस्से से कहा,  “देखिए, अपने बर्ताव पर माफ़ी मांगने के बदले – ये छोकरी फिर से खाने पर टूट पड़ी है. .देखिए, इसकी भूख भी नहीं मरी है – दो आदमियों का खाना खा रही है...”  दादी का प्रतिवाद करने की ल्योल्या की हिम्मत नहीं हुई. मगर वह धीरे से फुसफुसाई: “ आग में घी डाल रहे हैं.”
दादी ने ये शब्द नहीं सुने, मगर पापा के डाइरेक्टर ने, जो ल्योल्या की बगल में बैठे थे, ये सोचा कि ये बात उसके लिए कही गई है. जब उन्होंने सुना तो अचरज से उनका मुँह खुला रह गया. हमारे मम्मा-पापा की ओर देखते हुए उसने कहा: हर बार, जब मैं आपके यहाँ आने की तैयारी कर रहा होता हूँ और आपके बच्चों की याद आती है, तो, यक़ीन मानिए, आपके यहाँ आने को मेरा बिल्कुल जी नहीं करता.”
पापा ने कहा: “ इस बात को देखते हुए कि बच्चों ने वाक़ई में बेहद बदतमीज़ी की है और वे हमारी उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे हैं, मैं आज से उनके बड़ों के साथ डिनर करने पर पाबन्दी लगाता हूँ. वे अपनी चाय ख़त्म करें और अपने कमरे में जाएँ. सार्डीन ख़त्म करके मैं और ल्योला, मेहमानों के चुटकुलों और ठहाकों के बीच वहाँ से चले गए. और तबसे पूरे दो महीने हम बड़ों के बीच में नहीं बैठे. और दो महीने बीतने के बाद मैं और ल्योल्या अपने पापा को मनाने लगे कि वे हमें फिर से बड़ों के साथ डिनर पर बैठने की इजाज़त दें. और हमारे पापा, जो उस दिन बड़े अच्छे मूड में थे बोले:
 “ठीक है, मैं इजाज़त दूँगा, मगर इस शर्त की तुम लोग मेज़ पर कुछ भी नहीं बोलोगे. अगर एक भी लब्ज़ बोले – तो आगे से कभी भी बड़ों के साथ मेज़ पर नहीं बैठोगे.”
और एक ख़ूबसूरत दिन हम फिर से मेज़ पर हैं – बड़ों के साथ डिनर कर रहे हैं. उस दिन हम शांत और चुपचाप बैठे रहे. हमें अपने पापा का स्वभाव मालूम है. हमें मालूम है कि अगर हम आधा भी शब्द कहेंगे, तो हमारे पापा हमें कभी भी बड़ों के साथ बैठने नहीं देंगे.          
 मगर बोलने पर लगी इस पाबन्दी से फ़िलहाल मुझे और ल्योल्या को कोई फ़र्क नहीं पड़ रहा है. मैं और ल्योल्या मिलकर चार आदमियों का खाना खा रहे हैं और आपस में मुस्कुरा भी रहे हैं. हमें ऐसा लग रहा है कि हमें बात करने की इजाज़त न देकर बड़ों ने गलती की है. बातचीत से मुक्त हमारे मुँह पूरे समय बस खाने में व्यस्त हैं. मैंने और ल्योल्या ने जो सम्भव था, सब खा लिया और फिर हम स्वीट-डिश की ओर लपके. स्वीट-डिश खाने और चाय पीने के बाद, मैंने और ल्योल्या ने तय किया कि दूसरी सर्विंग पर भी हाथ साफ़ किया जाए – शुरू से सारी चीज़ें फिर से खाने का फ़ैसला किया, इसलिए भी कि हमारी मम्मा ने, यह देखकर कि मेज़ क़रीब क़रीब ख़ाली है, नए पकवान लाकर रख दिए. मैंने ‘बन’ उठाया और मक्खन का टुकड़ा काटा. मगर मक्खन तो पूरा जमा हुआ था – उसे अभी-अभी फ्रिज से निकाला गया था. इस जमे हुए मक्खन को मैं ‘बन’ पर लगाना चाहता था. मगर मुझसे यह हो नहीं पा रहा था. वह पत्थर की तरह जम गया था. और तब, मैंने मक्खन को चाकू की नोक पर रखा और उसे चाय के गिलास के ऊपर पकड़कर गरम करने लगा. और चूंकि अपनी चाय तो मैं पहले ही पी चुका था, तो मैं इस मक्खन के टुकड़े को पापा के डाइरेक्टर के गिलास के ऊपर गरम करने लगा, जो मेरी ही बगल में बैठे थे. पापा के डाइरेक्टर कुछ कह रहे थे और उन्होंने मेरी तरफ़ ध्यान नहीं दिया. इस बीच चाय के ऊपर पकड़ा हुआ चाकू गरम हो गया. मक्खन थोड़ा पिघला. मैं उसे ‘बन’ पर लगाना चाहता था और मैं गिलास से अपना हाथ हटा ही रहा था. मगर तभी मक्खन का टुकड़ा अचानक चाकू से फिसला और सीधा चाय में गिर गया. डर के मारे मैं मानो जम गया. आँखें फाड़े मैं मक्खन की ओर देखे जा रहा था, जो गरम चाय में धँस गया था. फिर मैंने दाँए-बाँए देखा. मगर मेहमानों में से किसी की भी इस हादसे पर नज़र नहीं पड़ी थी. सिर्फ ल्योल्या ने देख लिया था, कि क्या हुआ है. कभी मेरी ओर तो कभी चाय के गिलास की ओर देखते हुए वह हँसने लगी. वह और भी ज़ोर से हँसने लगी, जब पापा के डाइरेक्टर ने कोई किस्सा सुनाते हुए चम्मच से अपनी चाय हिलाना शुरू किया. वो बड़ी देर तक हिलाते रहे, जिससे पूरा मक्खन पिघल गया, उसका नामो निशान न बचा. और अब चाय मुर्गी के शोरवे जैसी हो गई थी. पापा के डाइरेक्टर ने गिलास हाथ में लिया और उसे अपने मुँह की ओर ले जाने लगे . और हाँलाकि ल्योल्या को ये देखने में बड़ी दिलचस्पी थी कि आगे क्या होता है और जब पापा के डाइरेक्टर इस भयानक चीज़ को मुँह में डालेंगे तो वो क्या करेंगे, मगर फिर भी वह थोड़ा घबरा ही गई थी. वह अपना मुँह खोलकर पापा के डाइरेक्टर से चिल्लाकर कहने ही वाली थी: “मत पीजिए!”. मगर पापा की ओर देखकर, और ये याद करके कि बोलना मना है, ख़ामोश रह गई.

और मैंने भी कुछ नहीं कहा. मैंने बस हाथ झटक दिए और एकटक पापा के डाइरेक्टर के मुँह की ओर देखने लगा. इस बीच पापा के डाइरेक्टर ने गिलास मुँह से लगाकर एक बड़ा घूंट ले लिया था. मगर तभी उनकी आँखें आश्चर्य से गोल-गोल हो गईं. वो ‘आह, आह’ करने लगे, अपनी कुर्सी पर उछलने लगे, मुँह खोला, लपक कर नैपकिन उठा लिया और खाँसने लगे और थूकने लगे.

हमारे मम्मा-पापा ने उनसे पूछा, “आपको क्या हो गया है?”

डर के मारे पापा के डाइरेक्टर एक लब्ज़ भी नहीं बोल पा रहे थे. उन्होंने उँगलियों से अपने मुँह की ओर इशारा किया, कुछ बुदबुदाए और भय से अपने गिलास की ओर देखने लगे.
अब वहाँ मौजूद सभी लोग बड़ी दिलचस्पी से गिलास में बची हुई चाय की ओर देखने लगे..
मम्मा ने इस चाय को देखने के बाद कहा, “घबराइए नहीं, ये साधारण मख्खन तैर रहा है चाय में , जो गरम चाय में पिघल गया है.

पापा ने कहा, “मगर पता तो चले कि वह चाय में गिरा कैसे. तो, बच्चों, अपने निरीक्षणों के बारे में हमें बताओ.”
बोलने की अनुमति पाकर ल्योल्या ने कहा, “मीन्का गिलास के ऊपर चाकू में मक्खन गरम कर रहा था, और वह गिर गया.” अब ल्योल्या अपने आप पर काबू न कर पाई और ठहाका मार कर हँस पड़ी. कुछ मेहमान भी हँसने लगे. मगर कुछ लोग संजीदा और फिक्रमन्द होकर अपने अपने गिलास देखने लगे.
पापा के डाइरेक्टर ने कहा, “ये तो मेहेरबानी हुई कि उन्होंने मेरी चाय में मक्खन ही डाला है. वे कोलतार भी डाल सकते थे. अगर ये कोलतार होता, तो मेरा क्या हाल होता. ओह, ये बच्चे तो मुझे पागल कर देंगे.”
एक मेहमान ने कहा, “मुझे तो दूसरी ही बात में दिलचस्पी है. बच्चों ने देखा कि मक्खन चाय में गिर गया है. फिर उन्होंने इस बारे में किसी को भी नहीं बताया. और ऐसी ही चाय पीने दी. ये ही उनका प्रमुख गुनाह है.”

ये शब्द सुनकर पापा के डाइरेक्टर चहके:
 “आह, वाक़ई में, शैतान बच्चे – तुम लोगों ने मुझे कुछ भी क्यों नहीं बताया. मैं तब वो चाय पीता ही नहीं...”
ल्योल्या ने हंसना रोक कर कहा: “हमें पापा ने मेज़ पर बोलने से मना किया है. इसीलिए हमने कुछ भी नहीं कहा. “
मैं आँसू पोंछकर बोला: “एक भी लब्ज़ बोलने से मना किया है पापा ने. वर्ना हम कुछ न कुछ ज़रूर कहते.”
पापा मुस्कुराए और बोले: “ ये शरारती नहीं, बल्कि बेवकूफ़ बच्चे हैं. बेशक, एक तरफ़ से ये अच्छी बात है कि वे बिना चूँ-चपड़ किए आदेशों का पालन करते हैं. आगे भी इसी तरह करना चाहिए – आदेशों का पालन करना चाहिए और प्रचलित नियमों के अनुसार काम करना चाहिए. मगर यह सब करते समय अपनी अक्ल भी इस्तेमाल करनी चाहिए. अगर कुछ न हुआ होता – तो चुप रहना आपका फ़र्ज़ था. मगर यदि मक्खन चाय में गिर गया, या दादी समोवार की टोंटी बन्द करना भूल गई – तो आपको चिल्लाना चाहिए. तब सज़ा के बदले आपको सब ‘थैंक्यू!’ कहते. हर काम बदली हुई परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए करना चाहिए. और ये शब्द सुनहरे अक्षरों में अपने दिल में लिख लेने चाहिए. वर्ना तो सब ऊटपटांग हो जायेगा.”
मम्मा ने कहा: “या, मान लो, मैं तुमसे कहती हूँ कि फ्लैट से बाहर मत निकलना. अचानक आग लग जाती है. तब, बेवकूफ़ बच्चों, तुम क्या फ्लैट में रुके रहोगे, जब तक कि जल नहीं जाते? बल्कि, तुम्हें तो उछल कर फ्लैट से बाहर भागना चाहिए और हल्ला-गुल्ला मचाना चाहिए.”
दादी ने कहा:
 “या, मान लो, मैंने सबकी प्यालियों में दुबारा चाय डाली है. मगर ल्योल्या के गिलास में नहीं डाली. मतलब, मैंने सही काम किया है.”
यहाँ ल्योल्या को छोड़कर सब हँस पड़े. मगर पापा ने दादी से कहा, “आपने बिल्कुल सही नहीं किया, क्योंकि परिस्थिति फिर से बदल गई है. ये स्पष्ट हो गया है कि बच्चे बेक़सूर हैं. अगर उनका कोई क़सूर है भी, तो वो है उनकी बेवकूफ़ी...आपसे विनती करते हैं, दादी कि ल्योल्या के गिलास में चाय डाल दीजिए.”
सारे मेहमान हँसने लगे. और मैं और ल्योल्या तालियाँ बजाने लगे.
मगर, पापा के शब्द, मैं मानता हूँ, कि फ़ौरन समझ नहीं पाया.

मगर बाद में मैं उनका मतलब समझ गया और इन सुनहरे शब्दों को मैं बेशकीमती मानने लगा.
और इन शब्दों का, प्यारे बच्चों, मैंने जीवन के हर मोड़ पर पालन किया है. अपने व्यक्तिगत मामलों में. और युद्ध के दौरान. और, सोचो, अपने काम में भी.

मेरे लेखन कार्य में, मैं, मिसाल के तौर पर, पुराने, महान लेखकों से लिखने की कला सीखा था. उनके नियमों का पालन करते हुए लिखने का बड़ा चाव था. मगर मैंने देखा कि परिस्थिति बदल गई है. जीवन अब वैसा नहीं है जैसा उनके ज़माने में था, और जनता भी अब वैसी नहीं रही. इसलिए मैंने उन नियमों की नकल नहीं की.
और, हो सकता है कि इसीलिए मैंने लोगों को इतना दुख नहीं पहुँचाया. और कुछ हद तक मैं सुखी ही रहा.
पुराने ज़माने में एक विद्वान आदमी ने (जिसे सूली पर चढ़ा दिया गया था) कहा था, “किसी भी आदमी को उसकी मृत्यु से पहले सुखी नहीं कहना चाहिए.”
ये भी सुनहरे शब्द थे.

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