अध्याय 16
प्रस्थान से पूर्व की रात
कुछ अनजान आदमी आए, डाईनिंग हॉल और मम्मा के कमरे का फ़र्नीचर हटाया और
उसे टाट में बांध दिया. मम्मा ने परदे और लैम्प के कवर हटाए, और दीवारों से
तस्वीरें निकालीं. और कमरे में सब कुछ बड़ा बिखरा बिखरा, बेतरतीब सा लग रहा था :
फ़र्श पर रस्सियों के टुकड़े बिखरे पड़े थे, रंग उड़े हुए वॉल पेपर पर काली चौखटें –
वहाँ, जहाँ तस्वीरें लटक रही थीं. इस बेतरतीबी के बीच पाशा बुआ का कमरा और किचन ही
द्वीपों जैसे लग रहे थे. नंगे बिजली के बल्ब नंगी दीवारों, नंगी खिड़कियों और भूरे
टाट पर चमक रहे थे. एक दूसरे पर रखी कुर्सियों का ढेर बन गया था, जो छत की ओर अपने
खुरचे हुए पैर किए थीं.
कोई और समय होता तो वहाँ लुका-छिपी का खेल खेला जा सकता था. मगर अब, इस
समय...
वे आदमी रात को देर से गए. सब लोग, थके हुए सोने लगे. और ल्योन्या भी सो
गया, शाम को चीख़ा करता था उतना चीख कर. लुक्यानिच और पाशा बुआ बिस्तर में देर तक
फुसफुसाते रहे और उनकी नाक सूँ-सूँ करती रही, आख़िर में वे भी ख़ामोश हो गए, और
लुक्यानिच के खर्राटों की आवाज़ और पाशा बुआ की नाक से निकलती पतली सीटी सुनाई देने
लगी.
कोरोस्तेल्योव अकेला ही टाट से बंधी कुर्सी पर मेज़ के पास नंगे लैम्प के
नीचे बैठा था और लिख रहा था. अचानक उसे अपनी पीठ के नीचे गहरी साँस की आवाज़ आई.
उसने मुड़ कर देखा – उसके पीछे सिर्योझा खड़ा था लंबी कमीज़ पहने, नंगे पैर और बंधे
हुए गले से.
“तू क्या कर रहा है यहाँ?” फुसफुसाहट
से कोरोस्तेल्योव ने पूछा और उठ कर खड़ा हो गया.
“कोरोस्तेल्योव,” सिर्योझा ने
कहा, “मेरे प्यारे, मेरे दुलारे, मैं तुमसे विनती करता हूँ, ओह, प्लीज़, मुझे भी ले
चलो!”
और वह दुख से सिसकियाँ लेने लगा, अपने आप को रोकने की कोशिश करते हुए,
जिससे सोए हुए लोग उठ न जाएँ.
“तू, मेरे दोस्त, क्या कर रहा
है!” कोरोस्तेल्योव ने उसे हाथों में उठाते हुए कहा. “तुमसे कहा है न – नंगे पैर
घूमना मना है, फ़र्श ठंडा है...तुम्हें तो मालूम है, है ना?...हम तो हर चीज़ के बारे
में तय कर चुके हैं...”
“मुझे खल्मागोरी जाना है,”
सिर्योझा बिसूरने लगा.
“देखो ज़रा, पैर तो पूरे जम गए
हैं,” कोरोस्तेल्योव ने कहा. सिर्योझा की कमीज़ के किनारे से उसने उसके पैर ढाँक
दिए; उसके दुबले-पतले शरीर को, जो सिसकियों के कारण थरथरा रहा था, अपने सीने से
चिपटा लिया. “क्या कर सकते हो, समझ रहे हो, अगर ये ऐसे ही चलता रहा तो. अगर तुम
हमेशा बीमार पड़ते रहे...”
“मैं अब और बीमार नहीं पडूँगा!”
“और जैसे ही तुम अच्छे हो जाओगे – मैं फ़ौरन तुम्हें लेने के लिए आ
जाऊँगा.”
“तुम झूठ तो नहीं बोल रहे हो?”
दुखी होकर सिर्योझा ने पूछा और उसकी गर्दन में बाँहें डाल दीं.
“मैंने, दोस्त, आज तक तुमसे कभी
झूठ नहीं बोला.”
‘सच है, झूठ नहीं बोला,’
सिर्योझा ने सोचा, ‘मगर कभी कभी वह भी झूठ बोलता है, वे सभी कभी कभी झूठ बोलते
हैं...और, अगर, अचानक, वह मुझसे झूठ बोल रहा हो तो?’
वह इस मज़बूत मर्दाना गर्दन को पकड़े रहा, जो ठोढ़ी के नीचे चुभ रही थी,
जैसे किसी आख़िरी सहारे को छोड़ना नहीं चाह रहा हो. इस आदमी पर उसकी सारी आशाएँ टिकी
थीं, और वही उसका रक्षक था, उसका प्यार था. कोरोस्तेल्योव उसे लिए-लिए डाईनिंग रूम
में घूम रहा था और फुसफुसा रहा था – रात की ये पूरी बातचीत फुसफुसाहट में ही हो
रही थी:
“...आऊँगा, फिर हम तुम रेल में
जाएँगे...रेलगाड़ी तेज़ चलती है. डिब्बे लोगों से खचाखच भरे होते हैं...पता भी नहीं
चलेगा कि कब मम्मा के पास पहुँच गए हैं...इंजिन सीटी बजाता है...
‘बस, सिर्फ़ उसके पास कभी समय ही
नहीं होगा मेरे लिए आने का,’ सिर्योझा दुख से सोच रहा था. ‘और मम्मा के पास भी समय
नहीं होगा. हर रोज़ उनके पास अलग अलग तरह के लोग आते रहेंगे और टेलिफ़ोन करते
रहेंगे, और हमेशा वे या तो काम पर जाते रहेंगे, य परीक्षा देते रहेंगे, या
ल्योन्या को संभालते रहेंगे, और मैं यहाँ इंतज़ार करता रहूँगा, इंतज़ार करता रहूँगा,
और ये इंतज़ार कभी ख़त्म ही नहीं होगा...’
“...वहाँ, जहाँ हम रहेंगे, सचमुच
का जंगल है, अपने यहाँ की बगिया जैसा नहीं...कुकुरमुत्ते, बैरीज़, ...”
“भेड़िए भी हैं?”
“वो मैं अभी नहीं बता पाऊँगा.
भेड़ियों के बारे में मैं ख़ास तौर से पता करूंगा और तुम्हें ख़त में लिखूँगा...और
नदी है, हम तुम तैरने के लिए जाएँगे...मैं तुम्हें पेट के बल खिसकते हुए तैरना
सिखाऊँगा...”
‘और कौन कह सकता है,’ आशा की एक
नई उमंग से सिर्योझा ने सोचा, शक करते करते वह थक गया था. ‘हो सकता है, यह सब
सचमुच में होगा.’
“हम बन्सियाँ बनाएँगे, मछलियाँ
पकडेंगे...देखो! बर्फ़ पड़ने लगी!”
वह सिर्योझा को खिड़की के पास ले गया. खिड़की के पार बड़े बड़े सफ़ेद फ़ाहे उड़
रहे थे, एक पल में चपटे होकर खिड़की की काँच से चिपक रहे थे. सिर्योझा उनकी ओर
देखने लगा. वह पूरी तरह थक गया था, अपना गरम गीला गाल कोरोस्तेल्योव के चेहरे से
चिपकाए वह शांत हो गया था.
“आ गईं सर्दियाँ! फिर से ख़ूब
घूमोगे, स्लेज पर फिसलोगे, समय तो बिना कुछ महसूस किए उड़ जाएगा...”
“मालूम है,” सिर्योझा ने ग़मगीन
परेशानी से कहा. “मेरी स्लेज की डोरी बहुत बुरी है, तुम नई डोरी बांध दो.”
“ठीक है. ज़रूर बांध दूँगा. मगर
तुम, दोस्त, मुझसे वादा करो : अब कभी नहीं रोओगे, ठीक है? तुम्हें भी नुक्सान होता
है, और मम्मा भी परेशान हो जाती है, और वैसे भी ये मर्दों का काम नहीं है. मुझे ये
अच्छा नहीं लगता...वादा करो कि कभी नहीं रोओगे.”
“हूँ,” सिर्योझा ने कहा.
“वादा करते हो? पक्का वादा?”
“हूँ, हूँ...”
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