बूढ़ी दादी ने स्याही कैसे खरीदी
लेखक: डैनियल
चार्म्स
अनु: आ. चारुमति
रामदास
कोसोबोका स्ट्रीट की बिल्डिंग नं. 17 में
एक बूढ़ी दादी रहती थी. कभी वह अपने पति के साथ रहती थी, और उसका एक बेटा भी था.
मगर बेटा बड़ा हो गया और बाहर चला गया, और पति का हो गया और दादी अकेली रह गई.
वह ख़ामोशी से और शांति से रहती थी, चाय
पीती, बेटे को ख़त लिखती, इसके अलावा कुछ और नहीं करती थी.
दादी के बारे में लोग ये कहते थे कि वो
चांद से टपकी है.
एक बार दादी गर्मियों में बाहर आँगन में
निकली, चारों ओर देखने लगी और बोली:
“आह, लोगों, ये बर्फ कहाँ चली गई?”
और पड़ोसी हँसकर उससे बोले:
“अरे, क्या कभी ऐसा देखा है कि गर्मियों में
बर्फ ज़मीन पर पड़ी हो? तुम क्या अम्मा, क्या चांद से टपकी हो?”
या फिर दादी केरोसिन की दुकान में जाती और
पूछती:
“
आपके पास फ्रेंच रोल कितने का है?”
सेल्समेन हंसते हैं:
“क्या कह रही हैं, नागरिक, हमारे पास फ्रेंच रोल
कहाँ से आए? चांद से टपकी हैं क्या?”
तो ऐसी थी बूढ़ी दादी!
एक बार मौसम बड़ा अच्छा था, धूप निकली थी,
आसमान में एक भी बादल नहीं था. कोसोबोका स्ट्रीट पर धूल उड़ रही थी. केयरटेकर्स
निकले तांबे की टोंटियों वाले टार्पोलिन के पाइप से सड़क पर पानी सींचने. वे सीधे
उड़ती हुई धूल पर पानी डाल रहे थे. धूल पानी के साथ साथ ज़मीन पर उड़ रही थी. घोड़े
पानी के डबरों पर दौड़ रहे थे और हवा धूल रहित हो गई.
17नं. बिल्डिंग के गेट से दादी निकली.
उसके हाथ में चमचमाती मूठ वाली छतरी थी, और सिर पर थी हैट, काले सितारों वाली.
“ज़रा बताओ तो,” उसने केयर टेकर से पूछा, “
स्याही कहाँ मिलती है?”
“क्या?” केयरटेकर चीखा.
दादी उसके नज़दीक गई:
“स्याही!” वह चिल्लाई.
“बाज़ू हट!” पानी की धार छोड़ते हुए केयर टेकर
चिल्लाया.
दादी बाएँ हटी, धार भी बाएँ.
दादी फ़ौरन दाएँ हटी, और धार भी उसके पीछे
पीछे.
“तू क्या,” केयर टेकर चिल्लाया, “चांद से टपकी
है, देख रही है न कि मैं रास्ते पर पानी डाल रहा हूँ!”
दादी ने बस छतरी घुमाई और आगे बढ़ गई.
दादी बाज़ार पहुँची, देखती है कि एक नौजवान
खड़ा है और पाईक मछली बेच रहा है – बड़ी-बड़ी, रसदार, करीब हाथ भर लम्बी, पैर जितनी
मोटी. उसने मछली हाथ पर रखी, फिर एक हाथ से उसकी नाक पकड़ी, उसे घुमाया घुमाया और
छोड़ दिया, मगर गिरने नहीं दिया, बल्कि फुर्ती से दूसरे हाथ से पूँछ से पकड़ लिया,
और दादी के सामने लाया.
“ले,” वह बोला, “एक रूबल में दूँगा.”
“नहीं,” दादी बोली, “मुझे स्याही चाहिए...”
नौजवान ने उसे पूरा बोलने ही नहीं दिया.
“ले लीजिए,” बोला, “महंगा नहीं दे रहा हूँ.”
“नहीं,” दादी बोली, “मुझे स्याही...”
और वह फिर से:
“ले लीजिए,” कहने लगा, “मछली साढ़े पांच पाउंड
वज़न की है,” और जैसे थककर उसने मछली दूसरे हाथ में ले ली.
“नहीं,” दादी ने कहा, “मुझे स्याही चाहिए.”
आख़िरकार नौजवान ने सुन ही लिया कि दादी
उससे क्या कह रही है.
“स्याही?” उसने सवाल किया.
“हाँ, स्याही.”
“स्याही?”
“स्याही.”
“और
मछली नहीं चाहिए?”
“नहीं.”
“मतलब, स्याही?”
“हाँ.”
“आप,
क्या चांद से उतरी हैं!” नौजवान ने कहा.
“मतलब, आपके पास स्याही नहीं है,” दादी ने कहा
और आगे बढ़ गई.
“ ताज़ा माँस लीजिए,” हट्टे-कट्टे कसाई ने
चिल्लाकर दादी से कहा, और ख़ुद चाकू से लिवर काटता रहा.
“आपके
पास स्याही तो नहीं है?”
“स्याही?” सुअर के धड़ को पैर से घसीटते हुए कसाई
दहाड़ा. दादी फ़ौरन कासाई से दूर हट गई, कितना मोटा और गुसैल था वो! और एक सामान
बेचने वाली चिल्लाकर उससे बोली:
“यहाँ आइए! यहाँ आइए!!”
दादी उसके स्टाल की तरफ़ आई और चश्मा पहन
लिया, ये सोचते हुए कि अब स्याही देखना होगी. और दुकानदारिन ने मुस्कुराकर उसकी ओर
काली बेरीज़ का डिब्बा बढ़ा दिया.
“लीजिए,” बोली, “ऐसी चीज़ आपको कहीं न मिलेगी.”
दादी ने एक बेरीज़ का डिब्बा लिया, उस हाथ
में लेकर घुमाया और वापस रख दिया.
“मुझे स्याही चाहिए, बेरीज़ नहीं,” वह बोली.
“कैसी स्याही – काली या लाल?” दुकानदारिन ने
पूछा.
“काली,” दादी ने कहा.
“काली नहीं है,” दुकानदारिन ने जवाब दिया.
“तो फिर लाल ही सही,” दादी ने कहा.
“और लाल भी नहीं है,” दुकानदारिन ने कहा और अपने
होठों पर पट्टी रख ली.
“अलबिदा,” दादी ने कहा और आगे चली.
अब तो बाज़ार भी ख़तम होने को आया., मगर
स्याही कहीं नहीं दिखी.
दादी बाज़ार से बाहर निकल गई और किसी एक
सड़क पर चलने लगी.
अचानक देखती क्या है – एक के पीछे एक
पन्द्रह गधे धीमी चाल से जा रहे हैं. सबसे आगे वाले गधे पर एक आदमी बैठा है और
हाथों में एक बड़ा झंडा पकड़े है. दूसरे गधों पर भी लोग बैठे हैं और हाथों में कोई
पोस्टर्स पकड़े हैं.
“ये क्या बात हुई?” दादी सोचने लगी. “हो सकता है
कि आजकल ट्रामगाड़ियों की तरह, गधों पर चलते हैं.”
“ऐ!” उसने सामने वाले गधे पर बैठे आदमी से
चिल्लाकर कहा. “थोड़ा रुक. बता तो सही, स्याही कहाँ मिलती है?”
मगर, ज़ाहिर था कि गधे पर सवार आदमी ने
सुना ही नहीं कि दादी ने उससे क्या कहा, और उसने कोई एक भोंपू उठा लिया, एक तरफ़ से
संकरा, और दूसरी तरफ़ से – खुले मुँह का, चौड़ा. संकरा सिरा मुँह से लगाया, और दादी
के ठीक मुँह पर उसमें इतनी ज़ोर से चिल्लाने लगा, कि सात मील तक सुनाई दे रहा
था:
“आइए, आइए, आपके
शहर में दूरोव से मिलिए!
सर्कस में! सर्कस
में!
समुद्री सिंह –
पब्लिक के प्यारे!
आख़िरी सप्ताह!
टिकट प्रवेश द्वार
पर!”
डर के मारे दादी के हाथ से छतरी भी छूट गई. उसने छतरी उठाई, मगर डर के मारे
हाथ इतनी बुरी तरह काँप रहे थे कि वह फिर से छूट गई.
दादी ने छतरी उठाई, उसे कस कर पकड़ा और जल्दी
जल्दी सड़क पर चलने लगी, फुटपाथ पर वह एक सड़क से दूसरी में मुड़ गई और तीसरी सड़क पर
निकली जो काफ़ी चौड़ी और शोरगुल वाली थी.
चारों ओर लोग जल्दी जल्दी भाग रहे हैं, और
रास्ते पर बसें जा रही हैं और ट्रामगाड़ियाँ गरज रही थीं.
दादी बस सड़क पार करके दूसरी ओर जाना चाहती
थी, अचानक:
“कर् र् र् –र् र् –आर् र् र् – र् र् र् - बस चिल्लाई.
दादी ने उसे जाने दिया, मगर जैसे ही उसने
रास्ते पर पाँव रखा, उस पर :
“ऐ, संभल के!” गाड़ीवान चिल्लाया.
दादी ने उसे जाने दिया और फ़ौरन दूसरी ओर
भागी. रास्ते के बीचोंबीच पहुँची ही थी कि :
“झिन-झिन! डिन-डिन-डिन!” - ट्रामगाड़ी गुज़रती है.
दादी वापस पीछे को, और पीछे से:
“पिर-पिर-पिर-पिर!!!” मोटरसाइकल वाला चिरकता है.
बिल्कुल ही डर गई दादी, मगर ये तो अच्छा
हुआ कि एक भला आदमी मिल गया, उसने दादी का हाथ पकड़ा और कहने लगा:
“आप क्या,” कहता है, “जैसे चांद से टपकी हैं! आप
को कुचल भी सकते हैं.”
और वह घसीटते हुए दूसरी ओर को ले गया.
कुछ सांस लेकर दादी ने सोचा कि इस भले
आदमी से ही स्याही के बारे में पूछा जाए, मगर जैसे ही उसने चारों ओर नज़र डाली तो
पाया कि उसका नामो-निशान तक खो गया था.
आगे चल पड़ी दादी, छतरी का सहारा लेते हुए,
दोनों ओर देखते हुए, कि स्याही का पता कैसे चले.
सामने
से आ रहा था एक छोटा-सा बूढ़ा हाथ में छड़ी पकड़े. खूब बूढ़ा था, बाल एकदम सफ़ेद थे.
दादी उसके पास गई और कहने लगी:
“आप,
ज़ाहिर है, पुराने ज़माने के आदमी हैं, क्या आपको मालूम है कि स्याही कहाँ मिलती
है?”
बूढ़ा रुक गया, उसने सिर उठाया, चेहरे की
झुर्रियों को ऊपर नीचे हिलाया और सोचने लगा. इस तरह से कुछ देर खड़े रहने के बाद,
उसने अपनी जेब में हाथ डाला, तंबाकू का पाऊच निकाला, सिगरेट बनाने वाला कागज़
निकाला और सिगरेट-होल्डर भी निकाला. इसके
बाद धीरे धीरे सिगरेट बनाई और उसे सिगरेट-होल्डर में रखकर, तम्बाकू का पाऊच और
सिगरेट बनाने वाला कागज़ वापस जेब में रख दिया, और माचिस निकाली. फिर सिगरेट के कश
लगाए और, माचिस छिपाकर, अपने पोपले मुँह से बोला:
“शाशी दुशाश में मिशती है.”
दादी को कुछ भी समझ में नहीं आया, और बूढ़ा
आगे चला गया.
सोचने लगी दादी.
ऐसा क्यों है कि कोई भी स्याही के बारे
में कुछ भी नहीं बता पा रहा है.
क्या उन्होंने स्याही के बारे में कभी कुछ
सुना ही नहीं है?
और दादी ने फ़ैसला कर लिया कि वह दुकान में
जाकर स्याही के बारे में पूछेगी.. वहाँ तो लोगों को मालूम ही होगा.
और दुकान भी बगल में ही थी. खिड़कियाँ
बड़ी-बड़ी, पूरी दीवार में. और खिड़कियों में पड़ी हैं किताबें.
“ ये है,” दादी ने सोचा, “यहाँ जाती हूँ.
यहाँ शायद स्याही होगी, क्योंकि किताबें पड़ी हैं. किताबें तो स्याही से ही लिखते
हैं ना.”
वह दरवाज़े के पास गई, दरवाज़ें काँच के हैं
और कुछ अजीब से हैं.
दादी ने दरवाज़े को धक्का दिया, मगर उसे ही
किसी चीज़ ने पीछे की ओर धकेला.
चारों ओर नज़र दौड़ाई, देखा कि एक दूसरा
काँच का दरवाज़ा उसके ऊपर आ रहा है. दादी आगे आगे और दरवाज़ा पीछे पीछे. चारों ओर हर
चीज़ काँच की है और हर चीज़ घूम रही है. दादी का सिर चकराने लगा, वह चल तो रही है,
मगर ख़ुद ही नहीं समझ रही थी कि कहाँ जा रही है.
और चारों ओर बस दरवाज़े ही दरवाज़े, और वे
सब घूम रहे हैं और दादी को आगे धकेल रहे हैं. दादी किसी चीज़ के चारों ओर घूमती
रही, घूमती रही, बड़ी मुश्किल से बाहर निकली, ये तो अच्छा हुआ कि उसकी जान बच गई.
दादी देखती है कि - एक बहुत बड़ी घड़ी रखी है और एक सीढ़ी ऊपर की ओर
जा रही है. घड़ी के पास एक आदमी खड़ा है. दादी उसके पास गई और बोली:
“मुझे स्याही के बारे में कहाँ पता चलेगा?”
उसने तो उसकी तरफ़ मुँह भी नहीं फेरा, बस
उँगली से किसी छोटे से, जाली वाले दरवाज़े की ओर इशारा कर दिया. दादी ने दरवाज़ा
थोड़ा सा खोला, उसके भीतर गई और देखा कि ये तो एक बिल्कुल छोटा सा कमरा है, किसी
अलमारी जितना. और कमरे में खड़ा है एक आदमी. दादी उससे स्याही के बारे में पूछने ही
वाली थी...
अचानक: ‘”ज़िन! ज़्ज़िझ्झ्झ्झिन!” – और फर्श
ऊपर उठने लगा.
दादी खड़ी रही, हिलने की हिम्मत नहीं हो
रही थी, और उसके सीने पर मानो कोई पत्थर रखा हो, जो बड़ा बड़ा होने लगा. खड़ी है दादी
और साँस भी नहीं ले पा रही है. दरवाज़े से किसी के हाथ, पैर और सिर झाँकते हैं, और
अचानक सिलाई मशीन जैसी घर-घर होने लगी. फिर घर-घर बन्द हो गई और साँस लेना आसान हो
गया. किसी ने दरवाज़ा खोला और कहा:
“प्लीज़, आ गए हैं, छठी मंज़िल, ऊपर और कुछ नहीं
है.”
दादी मानो सपना देख रही हो, वह बाहर निकल
कर उस ओर मुड़ी जिस तरफ़ इशारा किया गया था, और उसके पीछे दरवाज़ा बन्द हुआ और वह
शैतान कमरा फिर से नीचे चला गया.
खड़ी है दादी, हाथों में छतरी पकड़े, और ठीक
से साँस भी नहीं ले पा रही है. वह सीढ़ी पर खड़ी है, चारों ओर लोग चल रहे हैं,
दरवाज़े धडाम् धडाम् बन्द कर रहे हैं, और दादी खड़ी है – छतरी पकड़े.
दादी कुछ देर खड़ी रही, चारों ओर का जायज़ा
लिया, और किसी दरवाज़े की ओर बढ़ी.
दादी एक बड़े, रोशनीदार कमरे में आई. देखती
है कि कमरे में छोटी छोटी मेज़ें रखी हैं और मेज़ों के पीछे लोग बैठे हैं. कुछ लोग
कागज़ में नाक गड़ाए कुछ कुछ लिख रहे हैं, और दूसरे टाइप राइटर्स पर खट-खट कर रहे
हैं. शोर इतना, मानो किसी वर्कशॉप में हों, छोटे से वर्कशॉप में.
सीधे हाथ की ओर दीवार के पास एक दिवान रखा
है, दिवान पर एक मोटा आदमी बैठा है और एक दुबला भी. मोटा दुबले से कुछ कह रहा है
और हाथ मल रहा है, और दुबला पूरा सामने झुक गया है, चमकीले फ्रेम वाले चश्मे की ओट
से मोटे की ओर देख रहा है, और अपने जूतों की लेस बांध रहा है.
“हाँ,” मोटे ने कहा, “एक छोटे बच्चे के बारे में
कहानी लिखी है, जिसने मेंढकी को निगल लिया था. बड़ी मज़ेदार कहानी है.”
“और मैं कुछ सोच ही नहीं पा रहा हूँ, कि किस
बारे में लिखूं,” छेद में लेस डालते हुए दुबले आदमी ने कहा.
“मेरी कहानी बड़ी मज़ेदार है,” मोटे आदमी ने कहा,
“ये बच्चा घर आया, पापा ने उससे पूछा कि वह कहाँ था, और पेट में जवाब दे रही है
मेंढकी “क्वा-क्वा!”. या स्कूल में : टीचर बच्चे से पूछते हैं, “जर्मन में ‘गुड मॉर्निंग’ को क्या कहते हैं,
और मेंढकी जवाब देती है, “क्वा-क्वा!” टीचर को गुस्सा आता है, और मेंढकी :
“क्वा-क्वा-क्वा!” ऐसी मज़ाकिया कहानी है,” मोटे ने कहा और हाथ मले.
“क्या आपने भी कुछ लिखा है?” उसने दादी से पूछा.
“नहीं,” दादी ने कहा, “मेरी स्याही ख़तम हो गई
है. मेरे पास पूरी दवात थी, बेटा छोड़कर गया था, वो अब ख़तम हो गई.”
“ओह, क्या आपका बेटा भी लेखक है?” मोटे ने पूछा.
“नहीं,” दादी ने कहा, “वह जंगलों का वार्डन है. बस, वो यहाँ नहीं रहता है.
पहले मैं अपने पति से स्याही मांग लेती थी, मगर अब पति नहीं है, और मैं अकेली रह
गई हूँ. क्या यहाँ मैं स्याही खरीद सकती हूँ?” दादी ने अचानक पूछा.
दुबले आदमी ने अपना जूता बांध लिया और
चश्मे की ओट से दादी की ओर देखने लगा.
“कैसी स्याही?” उसे अचरज हुआ.
“स्याही, जिससे लिखते हैं,” दादी ने समझाया.
“मगर यहाँ तो स्याही नहीं मिलती,” मोटे आदमी ने
कहा और हाथ मलना बंद कर दिया.
“आप यहाँ आईं कैसे?” दुबले वाले ने दिवान से
उठते हुए पूछा.
“अलमारी में आई,” दादी ने कहा.
“कौन सी अलमारी में?” मोटे और दुबले ने एक सुर
में पूछा.
“उसमें जो आपके यहाँ सीढ़ी पर ऊपर नीचे घूमती
है,” दादी ने कहा.
“आह, लिफ्ट में!” दुबला आदमी हँस पड़ा, फिर से
दिवान पर बैठते हुए, क्योंकि अब उसका दूसरा जूता खुल गया था.
“और आप यहाँ किसलिए आईं?” मोटे ने दादी से पूछा.
“क्योंकि मुझे कहीं भी स्याही नहीं मिली,” दादी
ने कहा, “सबसे पूछा, कोई भी नहीं जानता था. और यहाँ, देखा कि किताबें पड़ी हैं, बस
इसलिए यहाँ घुस गई. किताबें तो आख़िर स्याही से ही लिखते हैं ना!”
“हा, हा, हा!” मोटा ठहाका मार कर हँस पड़ा. “ओह,
आप तो सीधे चांद से ज़मीन पर टपकी हैं!”
“ऐ, सुनिए!” अचानक दुबला आदमी दिवान से उछला,
जूते बांधे बगैर, लेस फर्श पर झूलती रही.
“सुनिए,” उसने मोटे से कहा, “मैं बस स्याही
खरीदने वाली दादी के बारे में लिखूंगा.”
“ठीक है,” मोटे ने कहा और हाथ मले.
दुबले आदमी ने अपना चश्मा उतारा, उन पर फूँक मारी, रूमाल से पोंछा, दुबारा पहन
लिया और दादी से बोला:
“आप हमें बताइए कि आपने स्याही कैसे खरीदी, और
हम आपके बारे में किताब लिखेंगे और आपको स्याही भी देंगे.”
दादी ने कुछ देर सोचा और वह राज़ी हो गई.
और दुबले आदमी ने किताब लिखी:
बूढ़ी दादी ने
स्याही कैसे खरीदी.
.....
“आप यहाँ आई कैसे?” दुबले वाले ने दिवान से उठते हुए पूछा.
जवाब देंहटाएं“अलमारी में आई,” दादी ने कहा.
“कौन सी अलमारी में?” मोटे और दुबले ने एक सुर में पूछा.
“उसमें जो आपके यहाँ सीढ़ी पर ऊपर नीचे घूमती है,” दादी ने कहा.
“आह, लिफ्ट में!” दुबला आदमी हँस पड़ा,
हा हा हा !!! स्याही खरीदने के चक्कर में इस दादी ने तो सबका स्याहा कर दिया ... :)
Lovely comment!
हटाएंThanks.
Charumati