बुधवार, 31 जुलाई 2013

Seryojha - 15

अध्याय 15

खल्मागोरी

खल्मागोरी. मम्मा से कोरोस्तेल्योव की बातचीत में यह शब्द सिर्योझा अक्सर सुनता है.
 “ तुमने खल्मागोरी में ख़त लिखा?”
 “शायद खल्मागोरी में इतना व्यस्त नहीं रहूँगा, तब मैं राजनीतिक-अर्थशास्त्र की परीक्षा पास कर लूँगा.”
 “मुझे खल्मागोरी से जवाब आया है. लड़कियों के स्कूल में नौकरी दे रहे हैं.”
 “कर्मचारी विभाग से फोन आया था. खल्मागोरी के बारे में अंतिम निर्णय ले लिया गया है.”
 “इसे कहाँ खल्मागोरी घसीट कर ले जाएँगे. इसे तो दीमक खा गई है.” (अलमारी के बारे में.)
बस, सिर्फ खल्मागोरी, खल्मागोरी.
खल्मागोरी. ये कोई ऊँची चीज़ है. टीले और पहाड़, जैसा तस्वीरों में होता है. लोग एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ पर चढ़ रहे हैं. लड़कियों का स्कूल पहाड़ पर है. बच्चे स्लेज में पहाड़ों से फिसल रहे हैं.
सिर्योझा लाल पेन्सिल से यह सब कागज़ पर बनाता है और इस मौके पर दिमाग में आई एक धुन पर हौले-हौले गाता है:
 “खल्मागोरी, खल्मागोरी”
जब अलमारी के बारे में बात हो रही है, तो ज़ाहिर है कि हम वहाँ जा रहे हैं.
बहुत बढ़िया. इससे अच्छी तो और किसी बात की कल्पना ही नहीं की जा सकती. झेन्का चला गया. वास्का चला गया, और हम भी जा रहे हैं. इससे हमारा महत्व ख़ूब बढ़ जाता है, कि हम भी कहीं जा रहे हैं, बस एक ही जगह पर नहीं बैठे हैं.
 “क्या खल्मागोरी दूर है?” सिर्योझा ने पाशा बुआ से पूछा.
 “दूर है,” पाशा बुआ ने जवाब दिया और आह भर कर बोली, “बहुत दूर है.”
 “क्या हम वहाँ जाएँगे?”
 “ओह, मुझे मालूम नहीं हैं, सिर्योझेन्का, तुम्हारी बातें.”
 “वहाँ क्या रेल से जाते हैं?”
 “रेल से.”
 “क्या हम खल्मागोरी जा रहे हैं?” सिर्योझा मम्मा और कोरोस्तेल्योव से पूछता है. उन्हें ख़ुद ही उसे इस बारे में बताना चाहिए था, मगर बताना भूल गए.
वे एक दूसरे की ओर देखते हैं, और फिर दूसरी ओर नज़र फेर लेते हैं, सिर्योझा निरर्थक कोशिश करता है उनकी आँखों में देखने की.
 “हम जा रहे हैं? हम सचमुच वहाँ जा रहे हैं?” वह घबरा जाता है: वे जवाब क्यों नहीं देते?
मम्मा सावधानी से कहती है:
 “पापा का वहाँ तबादला कर दिया गया है.”
 “और हम भी उनके साथ जाएँगे?”
वह सीधे सीधे पूछता है और उसे सीधा सीधा जवाब चाहिए. मगर मम्मा, हमेशा की तरह, पहले ढेर सारी इधर उधर की बातें कहती है:
 “उसे कैसे अकेले छोड़ सकते हैं. उसे अकेले तो अच्छा नहीं लगेगा: काम से घर लौटेगा, और घर में कोई नहीं...घर साफ़ सुथरा नहीं है...खाना खिलाने वाला कोई नहीं...बातें करने के लिए कोई नहीं...बेचारे    
पापा का मन दुखी – ख़ूब दुखी हो जाएगा...”
और इसके बाद वह कहती है:
 “मैं उसके साथ जाऊँगी.”
 “और मैं?”
कोरोस्तेल्योव छत की ओर क्यों देख रहा है? मम्मा फिर से क्यों चुप हो गई और सिर्योझा को क्यों सहला रही है?
 “और मैं!!” सिर्योझा भय से पैर पटकते हुए दुहराता है.
 “पहले तो, पैर मत पटको,” मम्मा कहती है और उसे सहलाना बन्द करती है. “ये और कहाँ से सीख लिया है – पैर पटकना?! मैं दुबारा ये न देखूँ! और दूसरी बात – आओ इस बारे में सोचते हैं: तुम अभी कैसे जा सकते हो? अभी अभी तुम बीमारी से उठे हो. तुम पूरी तरह ठीक नहीं हुए हो. ज़रा सा कुछ होता है – बुख़ार आ जाता है. हमें भी अभी पता नहीं है कि वहाँ कैसे इंतज़ाम करेंगे. और वहाँ की आबोहवा भी तुम्हारे लिए ठीक नहीं है. तुम वहाँ बीमार ही पड़ते रहोगे, और कभी भी अच्छे नहीं हो पाओगे. और मैं तुम्हें, बीमार बच्चे को किसके सहारे छोडूँगी? डॉक्टर ने कहा है कि अभी तुम्हें वहाँ नहीं ले जाना चाहिए.”
इससे काफ़ी पहले कि वह अपनी बात पूरी करे, वह आँसू बहाते हुए सिसकियाँ लेकर रोने लगा. उसे नहीं ले जा रहे हैं! ख़ुद चले जा रहे हैं, उसके बगैर! सिसकियाँ लेते हुए उसने मुश्किल से सुना कि वह आगे क्या कह रही थी:
 “पाशा बुआ और लुक्यानिच तुम्हारे साथ रहेंगे. तुम उनके साथ रहोगे, जैसे हमेशा रहते आए हो.”
मगर वह हमेशा की तरह नहीं रहना चाहता! उसे मम्मा और कोरोस्तेल्योव के साथ रहना है!
 “मुझे खल्मागोरी जाना है!” वह चीख़ा.
 “ओह, मेरे बच्चे, ओह, चुप हो जा!” मम्मा ने कहा. “तुझे इतना क्या है उस खल्मागोरी का? वहाँ कोई ख़ास बात नहीं है...”
 “झूठ!”
 “तुम मम्मा से इस तरह क्यों बात कर रहे हो? मम्मा हमेशा सच बोलती है...और फिर तुम कोई हमेशा के लिए तो नहीं ना रहोगे यहाँ, बुद्धू है मेरा बच्चा, ओह, बस भी करो...सर्दियों में यहाँ रहोगे, अच्छे हो जाओगे और फिर बसंत में या, हो सकता है, गर्मियों में पापा तुझे लेने के लिए आएँगे, या मैं आऊँगी, और तुझे ले जाएँगे – जैसे ही ठीक हो जाओगे, फ़ौरन ले जाएँगे – और फिर से हम सब एक साथ रहेंगे. सोचो, क्या हम ख़ूब दिनों तक तुम्हें छोड़ सकते हैं?”
हाँ, और अगर वह गर्मियों तक अच्छा नहीं हुआ तो? हाँ, क्या ये आसान बात है – सर्दियाँ यहाँ बिताना? सर्दियाँ – इतनी लंबी, इतनी अंतहीन...और इस बात को कैसे बर्दाश्त करे कि वे जा रहे हैं, और वह – नहीं? उसके बगैर रहेंगे, दूर, और उन्हें कोई फ़रक नहीं पड़ता, नहीं पड़ता! और रेल में जाएँगे, और वह एक भी बार रेल से नहीं गया है – और उसे नहीं ले जा रहे हैं! सब कुछ एक ही साथ महसूस हो रहा था – भयानक अपमान और दुख. मगर वह अपना दुख सिर्फ सीधे साधे शब्दों में ही व्यक्त कर सकता था:
 “मुझे खल्मागोरी जाना है! मुझे खल्मागोरी जाना है!”
 “मीत्या, थोड़ा पानी दो, प्लीज़,” मम्मा ने कहा. “थोड़ा पानी पी, सिर्योझेन्का. ऐसी ज़िद कोई करता है, भला. तुम चाहे कितना ही चिल्लाओ, इससे कुछ होने वाला नहीं है. एक बार जब डॉक्टर ने बोल दिया कि नहीं, मतलब – नहीं. ओह, शांत हो जा, तू तो समझदार बच्चा है, शांत हो जा...सिर्योझेन्का, मैं तो पहले भी कितनी ही बार तुम्हें छोड़ कर गई  हूँ, जब मैं पढ़ती थी, तुम भूल गए? जाती थी और वापस आ जाती थी, है ना? और तुम मेरे बगैर मज़े से रहते थे. और, जब मैं तुम्हें छोड़कर जाती थी, तो कभी रोते भी नहीं थे, क्योंकि मेरे बिना भी तुम्हें अच्छा ही लगता था. याद करो. अभी तुम यह सब हंगामा क्यों कर रहे हो? क्या तुम, अपनी ही भलाई के लिए, कुछ दिनों तक हमारे बगैर नहीं रह सकते?”
कैसे समझाऊँ उसे? तब बात और थी. वह छोटा था और बेवकूफ़ था. वह जाया करती थी – उसकी आदत छूट जाती थी, और जब वह वापस लौट कर आती, फिर से उसकी आदत पड़ जाती. और तब वह अकेली जाती थी; मगर अब वह कोरोस्तेल्योव को उससे दूर ले जा रही है...एक नया ख़याल, नई पीड़ा: ‘ल्योन्या को, शायद, वह ले जाएगी.’ यक़ीन करने के लिए, अपने सूजे हुए होठों को दबाते हुए उसने पूछा,
 “और ल्योन्या?...”
 “अरे, वह तो बिल्कुल छोटा है!” उलाहने से मम्मा ने कहा और वह लाल हो गई. “वह मेरे बिना नहीं रह सकता, समझते हो? वह मेरे बिना मर जाएगा! और वह तन्दुरुस्त है, उसे बुख़ार नहीं आता और उसके गले की गाँठें सूजती नहीं हैं.”
सिर्योझा ने सिर झुका लिया और फिर से रोने लगा. मगर अब, ख़ामोशी से, बिना किसी आशा के.
वह किसी तरह समझौता कर लेता, अगर ल्योन्या भी रुक जाता. मगर वे तो सिर्फ़ उस अकेले को फेंक कर जा रहे हैं. सिर्फ वह अकेला ही उन्हें नहीं चाहिए! 
  ‘किस्मत के भरोसे,’ उसने कहानी के लकड़ी वाले लड़के के बारे में कटुता से सोचा.
और मम्मा ने उसे जो चोट पहुँचाई थी – ऐसी चोट जो ज़िन्द्गी भर उसके दिल पर अपना निशान छोड़ेगी – उसमें अपने दोषी होने की भावना भी मिल गई : वह दोषी है, दोषी! बेशक, वह ल्योन्या से बुरा है, उसकी गाँठें जो फूल जाती हैं, इसीलिए ल्योन्या को ले जा रहे हैं और उसे नहीं ले जाएँगे!
 “आ S S ह !” कोरोस्तेल्योव ने आह भरी और कमरे से निकल गया...मगर फ़ौरन लौट आया और बोला, “सिर्योझ्का, चलो घूमने चलते हैं. बगिया में.”
 “ऐसी नम हवा में! वह फिर पड़ जाएगा!” मम्मा ने कहा.
कोरोस्तेल्योव ने हाथ झटके.
 “वह वैसे भी लेटा रहता है. चलो, सेर्गेई.”
सिर्योझा सिसकियाँ लेते हुए उसके पीछे चल पड़ा. कोरोस्तेल्योव ने ख़ुद उसे गरम कपड़े पहनाए. सिर्फ स्कार्फ़ बांधने के लिए मम्मा से कहा. और उसका हाथ पकड़ कर वे बगिया में पहुँचे.
 “एक शब्द होता है : ‘ज़रूरी’, कोरोस्तेल्योव कह रहा था.  “तुम क्या सोचते हो, मैं खल्मागोरी जाना चाहता हूँ? या मम्मा जाना चाहती है? इसका एकदम उल्टा है. हमारी कितनी सारी योजनाएँ थीं, सब गड्ड मड्ड हो गईं. मगर ज़रूरी है – इसलिए जा रहे हैं. और मेरी ज़िन्दगी में तो ऐसा कितनी बार हुआ है.”
 “क्यों?” सिर्योझा ने पूछा.
 “ऐसी ही है, दोस्त, ज़िन्दगी.”
कोरोस्तेल्योव बड़ी गंभीरता से और दुख से बोल रहा था, और इस बात से थोड़ी सी राहत मिली कि उसे भी दुख हो रहा है.
 “वहाँ जाएँगे मम्मा के साथ. जैसे ही पहुँचेंगे, नया काम शुरू करना पड़ेगा. और फिर ये ल्योन्या है. उसे फ़ौरन शिशु-गृह में भेजना होगा. और अगर, अचानक, शिशु-गृह दूर हुआ तो? एक नर्स ढूँढ़नी पड़ेगी. ये भी बड़ा झंझट भरा काम है. और मुझे परीक्षा देनी होगी, पास होना होगा, चाहे तुम्हारी जान ही क्यों न निकल जाए. चाहे कहीं भी जाओ, हर जगह ‘ज़रूरी है’ . और तुझे तो सिर्फ एक ही बात ‘ज़रूरी है’ : कुछ दिनों के लिए यहाँ इंतज़ार कर लो. तुम्हें हमारे साथ मुसीबतें उठाने को मजबूर क्यों किया जाए? बेकार ही में और ज़्यादा बीमार पड़ जाओगे....”
मजबूर करने की ज़रूरत नहीं है. वह राज़ी है, तैयार है, वह तड़प रहा है उनके साथ मुसीबतें उठाने के लिए. जो उनके साथ हो रहा है, वही उसके साथ भी हो जाए. इस आवाज़ की तमाम आश्वासात्मकता के बावजूद सिर्योझा इस ख़याल को अपने दिल से न निकाल सका कि वे उसे इसलिए नहीं छोड़कर जा रहे हैं कि वह वहाँ बीमार पड़ जाएगा, बल्कि इसलिए कि वह, बीमार, उन पर बोझ बन जाएगा. मगर उसका दिल अब यह भी समझने लगा था कि कोई भी प्यारी चीज़ कभी बोझ नहीं होती. और उनके प्यार के प्रति शक इस दिल को पैनेपन से चीरता जा रहा था, जो अब काफ़ी कुछ समझने लगा था.
वे बगिया में आए. वहाँ सूना सूना और उदास था. पत्ते पूरे गिर चुके थे, नंगे पेड़ों पर घोंसले काले हो रहे थे, नीचे से देखने पर वे काले ऊन के उलझे हुए गोले जैसे नज़र आ रहे थे. भूरी पड़ गई पत्तियों की गीली सतह पर बूटों से मच् मच् करते सिर्योझा पेड़ों के नीचे से कोरोस्तेल्योव का हाथ पकड़े चल रहा था और सोच रहा था. अचानक उसने बगैर किसी भावना के कहा, “सब एक ही है.”
 “क्या सब एक ही है?” कोरोस्तेल्योव ने उसके ओर झुकते हुए पूछा.
सिर्योझा ने जवाब नहीं दिया.
 “ सही में, दोस्त, सिर्फ़ गर्मियों तक!” कुछ देर की ख़ामोशी के बाद परेशानी से कोरोस्तेल्योव ने कहा.
सिर्योझा यह कहना चाहता था: सोचो या न सोचो, रोओ या न रोओ – इसका कोई मतलब नहीं है : तुम, बड़े लोग, सब कुछ कर सकते हो; तुम मना कर सकते हो, तुम इजाज़त दे सकते हो, गिफ्ट दे सकते हो और सज़ा दे सकते हो; और अगर तुमने कह दिया कि मुझे यहाँ रहना पड़ेगा, तो तुम मुझे कैसे भी छोड़ ही दोगे, चाहे मैं कुछ भी क्यों न करूँ. ऐसा जवाब वह देता, अगर दे सकता तो. बड़े लोगों की महान, असीमित सत्ता के सामने असहायता का एहसास उसके दिल को घेरने लगा....
... इस दिन से वह एकदम ख़ामोश हो गया. क़रीब क़रीब पूछता ही नहीं था: “ऐसा क्यों?” अक्सर अकेला रहता, पाशा बुआ के दीवान पर पैर ऊपर करके बैठ जाता और कुछ कुछ फुसफुसाता रहता. पहले ही की तरह उसे कभी कभार ही घूमने के लिए बाहर छोड़ते : शरद ऋतु लंबी खिंच रही थी – नम, चिपचिपी – और शरद ऋतु के साथ बीमारी भी खिंचती गई.

कोरोस्तेल्योव अक्सर उनके पास नहीं होता था. सुबह से वह अपना काम दूसरों को देने के लिए निकल जाता (जैसे कि अभी उसने कहा: ‘मैं चला अवेर्कियेव को काम सौंपने’) मगर वह सिर्योझा को भूला नहीं था: एक बार, उठने के बाद, सिर्योझा को अपने पलंग के पास नए क्यूब्स मिले, दूसरी बार – कत्थई रंग की बंदरिया. सिर्योझा को बंदरिया बहुत अच्छी लगी. वह उसकी बेटी बन गई. वह बड़ी ख़ूबसूरत थी, उस राजकुमारी की तरह. वह उससे कहता, ‘तू, दोस्त’. वह खल्मागोरी जाता और उसे अपने साथ ले जाता. उससे फुसफुसाकर बातें करते हुए, उसके ठंडे प्लास्टिक के मुँह को चूमते हुए, वह उसे सुलाता.

मंगलवार, 30 जुलाई 2013

Seryojha - 14

अध्याय 14


बेचैनी

फिर से बीमारी!  इस बार तो बिना किसी कारण के टॉन्सिल्स हो गए. फिर डॉक्टर ने कहा, “छोटी छोटी गिल्टियाँ,” और उसे सताने के नए तरीके ढूँढ़ निकाले – कॉडलिवर ऑईल और कम्प्रेस. और बुखार नापने के लिए भी कहा.
कम्प्रेस में क्या करते हैं : बदबूदार काला मरहम एक कपड़े के टुकड़े पर लगाते हैं और तुम्हारी गर्दन पर रखते हैं. ऊपर से एक कड़ा, चुभने वाला कागज़ रखते हैं. ऊपर से रूई. उसके ऊपर से बैण्डेज बाँधते हैं, बिल्कुल कानों तक. जिससे सिर ऐसा हो जाता है जैसे लकड़ी के बोर्ड पर ठुकी हुई कील : घुमा ही नहीं सकते. बस उसी तरह रहो.
ये तो भला हो उनका कि लेटे रहने की ज़बर्दस्ती नहीं करते. और जब सिर्योझा को बुखार नहीं होता, और बाहर बारिश नहीं हो रही होती, तो वह बाहर घूमने भी जा सकता है. मगर ऐसे संयोग कभी कभार ही होते हैं. क़रीब क़रीब हर रोज़ या तो बारिश होती है, या फिर बुखार रहता है.
रेडियो चलता रहता है; मगर उस पर जो कुछ भी बोला जा रहा है या बजाया जा रहा है, वह सब सिर्योझा के लिए दिलचस्प नहीं है.
और बड़े लोग तो बहुत आलसी हैं : जैसे ही कहानी पढ़ने के लिए या सुनाने के लिए कहो, वे माफ़ी मांग लेते हैं ये कहकर कि वे काम कर रहे हैं.
पाशा बुआ खाना पकाती रहती है; उसके हाथ, सचमुच में काम में लगे होते हैं, मगर मुँह तो खाली रहता है : एकाध कहानी ही सुना देती. या फिर मम्मा : जब वह स्कूल में होती है, या ल्योन्या के लंगोट बदल रही होती है, या कॉपियाँ जाँच रही होती है, तो बात और है; मगर जब वह आईने के सामने खड़ी रहती है और अपनी चोटियाँ कभी ऐसे तो कभी वैसे बनाती है, और मुस्कुराती भी रहती है – उस समय वह क्या काम कर रही होती है?
 “मुझे पढ़ कर सुनाओ,” सिर्योझा विनती करता है.
 “रुको, सिर्योझेन्का,” वह जवाब देती है. “मैं काम में हूँ.”
 “और तुमने उन्हें क्यों खोल दिया?” चोटियों के बारे में सिर्योझा पूछता है.
 “दूसरी तरह से बाल बनाना चाहती हूँ.”
 “क्यों?”
 “मुझे करना है.”
 “तुम्हें क्यों करना है?”
 “यूँ ही...”
 “और हँस क्यों रही हो तुम?”
 “यूँ ही...”
 “यूँ ही क्यों?”
 “ओह, सिर्योझेन्का, तू मेरा दिमाग चाट रहा है.”
सिर्योझा सोचने लगा : मैं उसका दिमाग कैसे चाट रहा हूँ? और कुछ देर सोचने के बाद कहता है:
 “फिर भी तुम मुझे थोड़ा सा पढ़ कर सुनाओ.”
 “शाम को आऊँगी,” मम्मा कहती है, “तब पढूँगी.”
मगर शाम को, लौटने के बाद, वह ल्योन्या को खिलाएगी, उसके हाथ-मुँह धुलाएगी, कोरोस्तेल्योव से बातें करेगी और अपनी कॉपियाँ जाँचेगी. और पढ़ने में फिर से टाल मटोल करेगी,
मगर देखो, पाशा बुआ ने अपना काम पूरा कर लिया है, और वह आराम करने बैठी है, अपने कमरे में दीवान पर. हाथ घुटनों पर रखे हैं, ख़ामोश बैठी है, घर में कोई भी नहीं है, तभी सिर्योझा उसे पकड़ लेता है.
 “अब तुम मुझे कहानी सुनाओगी,” रेडियो बन्द करके उसके पास बैठते हुए वह कहता है.
 “हे भगवान!” वह थकी हुई आवाज़ में कहती है, “कहानी सुनाऊँ तुझे. तुझे तो सारी की सारी मालूम हैं.”
 “तो क्या हुआ. मगर, फिर भी तुम सुनाओ.”
कितनी आलसी है!
 “तो, एक बार एक राजा और रानी रहते थे,” वह शुरू करती है, गहरी साँस लेकर. और उनकी एक बेटी थी. और तब एक ख़ूबसूरत दिन...”
 “वह सुन्दर थी?” सिर्योझा मांग करते हुए उसे बीच ही में टोकता है.
उसे मालूम था कि बेटी सुन्दर थी; और सभी को यह मालूम है; मगर पाशा बुआ छोड़ क्यों देती है? कहानियों में कुछ भी नहीं छोड़ना चाहिए.
 “सुन्दर थी, सुन्दर थी. इतनी सुन्दर, इतनी सुन्दर...एक, मतलब, ख़ूबसूरत दिन उसने सोचा कि शादी कर लूँ. कितने सारे लड़के शादी का प्रस्ताव लेकर आए...
कहानी अपने ढर्रे पर चलती रहती है. सिर्योझा ध्यान से सुनता है, अपनी बड़ी बड़ी, कठोर आँखों से शाम के धुँधलके में देखते हुए. उसे पहले से ही मालूम होता है कि अब कौन सा शब्द आएगा, मगर इससे कहानी बिगड़ तो नहीं ना जाती. उल्टे ज़्यादा अच्छी लगने लगती है.
शादी के लिए आए हुए लड़के, प्रस्ताव लेकर आना – इन शब्दों में उसे क्या समझ में आता है – वह कुछ बता नहीं सकता था; मगर वह सब कुछ समझता था – अपने हिसाब से. मिसाल के तौर पर ‘घोड़ा, जैसे ज़मीन में गड़ गया’ और फिर दौड़ने लगा – तो, इसका मतलब ये हुआ कि उसे बाहर निकाला गया.
धुँधलका गहराने लगता है. खिड़कियाँ नीली हो जाती हैं, और उनकी चौखट काली. दुनिया में कुछ भी सुनाई नहीं देता है, सिवाय पाशा बुआ की आवाज़ के, जो राजकुमारी से शादी के लिए आए हुए लड़कों के दुःसाहसी कारनामों के बारे में कह रही है. दाल्न्याया रास्ते के छोटे से घर में निपट ख़ामोशी छाई हुई है.
ख़ामोशी में सिर्योझा ‘बोर’ हो जाता है. कहानी जल्दी ख़तम हो जाती है : दूसरी कहानी सुनाने के लिए पाशा बुआ किसी भी क़ीमत पर तैयार नहीं होती, उसके गुस्से और उसकी विनती के बावजूद कराहते हुए और उबासियाँ लेते हुए वह किचन में चली जाती है; और वह अकेला रह जाता है. क्या किया जाए?

बीमारी के दौरान खिलौनों से बेज़ार हो गया था. ड्राईंग बनाने से भी उकता गया था. साईकिल तो कमरों में चला नहीं सकते – बहुत कम जगह है.
 ‘बोरियत’ ने सिर्योझा को बीमारी से भी ज़्यादा जकड़ रखा है, उसकी हलचल को सुस्त बना दिया है, ख़यालों से भटका दिया है. सब कुछ ‘बोरिंग’ है.
लुक्यानिच कुछ सामान ख़रीद कर लाया : भूरे रंग का डिब्बा, डोरी से बंधा हुआ. सिर्योझा बहुत उतावला हो गया और बेचैनी से इंतज़ार करने लगा कि लुक्यानिच उस डोरी को खोले. उसे काट देता, और बस! मगर लुक्यानिच बड़ी देर तक हाँफ़ते हुए उसकी कस कर बंधी हुई गाँठें खोलता है – डोरी की ज़रूरत पड़ सकती है, वह उसे साबुत की साबुत संभाल कर रखना चाहता है.
सिर्योझ आँखें फाड़ कर देख रहा है, पंजों के बल खड़े होकर...मगर भूरे डिब्बे से, जहाँ कोई बढ़िया चीज़ हो सकती थी, निकलते हैं एक जोडी काले कपड़े के जूते, रबर की पतली किनारी वाले.
सिर्योझा के पास भी जूते हैं, उसी तरह की लेस वाले, मगर वे कपड़े के नहीं, बल्कि सिर्फ रबर के हैं. वह उनसे नफ़रत करता है, अब इन जूतों की ओर देखने में उसे कोई दिलचस्पी नहीं है.
 “ये क्या है?” मायूस होकर, सुस्त-लापरवाही से वह पूछता है.
 “जूते,” लुक्यानिच जवाब देता है. “इन्हें कहते हैं ‘अलबिदा जवानी’” .
 “मगर क्यों?”
 “क्योंकि नौजवान ऐसे जूते नहीं पहनते.”
 “और क्या तुम बूढ़े हो?”
 “जब मैंने ऐसे जूते पहने हैं, तो इसका मतलब ये हुआ कि मैं बूढ़ा हूँ.”
लुक्यानिच पैर पटक कर देखता है और कहता है, “बढ़िया!”
और पाशा बुआ को दिखाने के लिए जाता है.
सिर्योझा किचन में कुर्सी पर चढ़ जाता है और बिजली की बत्ती जला देता है. एक्वेरियम में मछलियाँ तैर रही हैं, अपनी बेवकूफ़ों जैसी आँखें फ़ाड़े. सिर्योझा की परछाईं उन पर पड़ती है – वे तैर कर ऊपर की ओर आती हैं और खाने की उम्मीद में अपने मुँह खोलती हैं.
 ‘ हाँ, ये मज़ेदार बात है,’ सिर्योझा सोचता है, ‘क्या वे अपना ही तेल पियेंगी या नहीं?’
वह बोतल का ढक्कन निकालता है और एक्वेरियम में थोड़ा सा कॉडलिवर ऑइल डालता है. मछलियाँ पूँछ नीचे करके, मुँह खोले टँगी रहती हैं, मगर वे तेल नहीं पीतीं. सिर्योझा कुछ और तेल डालता है. मछलियाँ इधर-उधर भाग जाती हैं...
 ‘नहीं पीतीं,’ उदासीनता से सिर्योझा सोचता है.
 ‘बोरियत’, ‘बोरियत’ ! ये बोरियत उसे जंगलीपन और बेमतलब के कामों की ओर धकेलती है. वह चाकू लेता है और दरवाज़ों से उन जगहों का पेंट खुरच डालता है, जहाँ उसके पोपड़े पड़ गए थे. इसलिए नहीं कि उसे इससे ख़ुशी हो रही थी – मगर फिर भी कुछ काम तो था. ऊन का गोला लेता है, जिससे पाशा बुआ अपने लिए स्वेटर बुन रही है, और उसे पूरा खोल देता है – इसलिए कि उसे फिर से लपेट दे (जो उससे हो नहीं पाता). ऐसा करते हुए उसे हर बार ये महसूस होता है कि वह कोई अपराध कर रहा है, कि पाशा बुआ उसे डाँटेगी, और वह रोएगा – और वह डाँटती है, और वह भी रोता है, मगर कहीं दिल की गहराई में वह संतुष्ट है : थोड़ी डाँट-डपट हो गई, रोना-धोना हो गया – देखो, और समय भी बिना कुछ हुए नहीं बीता.

बहुत ख़ुशी होती है जब मम्मा आती है और ल्योन्या को लाती है. घर में जान आ जाती है : ल्योन्या चिल्लाता है, मम्मा उसे खिलाती है, उसके लंगोट बदलती है, ल्योन्या के हाथ-मुँह धुलाए जाते हैं. अब वह काफ़ी कुछ इन्सान जैसा लगता है, उसके मुक़ाबले, जब वह पैदा हुआ था. तब वह सिर्फ माँस का गोला ही था. अब वह मुट्ठी में झुनझुना पकड़ सकता है, मगर इससे ज़्यादा की उससे उम्मीद नहीं की जा सकती. वह पूरे दिन अपने शिशु-गृह में रहता है, अपनी कोई ज़िन्दगी जीता है, सिर्योझा से अलग.
कोरोस्तेल्योव देर से लौटता है. वह सिर्योझा से बात शुरू कर ही रहा होता है, या उसे किताब पढ़ कर सुनाने के लिए राज़ी हो ही रहा होता है, तो टेलिफ़ोन बजने लगता है, और मम्मा हर मिनट उनकी बातों में ख़लल डालती है. हमेशा उसे कुछ न कुछ कहना ही होता है; वह इंतज़ार नहीं कर सकती, लोगों के काम ख़त्म होने तक. रात को सोने से पहले ल्योन्या बड़ी देर तक चिल्लाता है. मम्मा कोरोस्तेल्योव को बुलाती है, उसे बस कोरोस्तेल्योव ही चाहिए होता है – वह ल्योन्या को उठाए-उठाए कमरे में घूमता है और शू—शू—करता है. मगर सिर्योझा का भी अब सोने का मन होता है और कोरोस्तेल्योव के साथ बातचीत अनिश्चित काल तक टल जाती है.
मगर कभी कभी ख़ूबसूरत शामें भी होती हैं – कम ही होती हैं – जब ल्योन्या जल्दी शांत हो जाता है, और मम्मा कॉपियाँ जाँचने बैठती है, तब कोरोस्तेल्योव सिर्योझा को बिस्तर पर लिटाता है और कहानी सुनाता है. पहले वह अच्छी तरह से नहीं सुनाता था, बल्कि उसे आता ही नहीं था; मगर सिर्योझा ने उसकी मदद की और उसे सिखाया, और अब कोरोस्तेल्योव काफ़ी अच्छी तरह से कहानी सुनाता है:
 “एक समय की बात है. एक राजा और रानी रहते थे. उनकी एक सुन्दर बेटी थी, राजकुमारी...”
और सिर्योझा सुनता है और ठीक करता है, जब तक कि वह सो नहीं जाता.

इन लंबे, उकताहट भरे दिनों में, जब वह कमज़ोर और चिड़चिड़ा हो गया था, कोरोस्तेल्योव का ताज़ा-तरीन, स्वस्थ्य चेहरा उसे और भी प्यारा लगने लगा, कोरोस्तेल्योव के मज़बूत हाथ, उसकी साहसभरी आवाज़...सिर्योझा सो जाता है, इस बात से प्रसन्न होते हुए कि हर चीज़ सिर्फ ल्योन्का और मम्मा के ही लिए नहीं है – कोरोस्तेल्योव का कुछ भाग तो उसके हिस्से में भी आता है...

सोमवार, 29 जुलाई 2013

Seryojha - 13

अध्याय 13

समझ से परे

आख़िर सिर्योझा को बिस्तर से उठने की इजाज़त मिल गई, और फिर घूमने फिरने की भी. मगर घर से दूर जाने की और पड़ोसियों के घर जाने की इजाज़त नहीं थी : डरते हैं कि कहीं फिर उसके साथ कुछ और न हो जाए.
और सिर्योझा को सिर्फ़ दोपहर के खाने तक ही बाहर छोड़ते हैं, जब उसके दोस्त स्कूल में होते हैं. शूरिक भी स्कूल में होता है, हाँलाकि अभी वह सात साल का नहीं हुआ है : मात-पिता ने उसे स्कूल में डाल दिया गोदने की घटना के बाद, जिससे कि वह ज़्यादा देर तक निगरानी में रहे और अच्छे कामों में समय बिताए...और छोटे बच्चों के साथ सिर्योझा को अच्छा नहीं लगता.

एक बार वह बाहर आँगन में आया और उसने देखा कि रोड के पास पड़े लकड़ी के ढेर पर कोई अनजान आदमी बैठा है लंबे कानों वाली, अजीब सी टोपी में. उस चाचा का चेहरा ब्रश जैसा था, कपड़े फटे-पुराने थे. वह बैठे हुए बहुत ही छोटी बीड़ी पी रहा था, इतनी छोटी कि वह पूरी की पूरी बस उसकी दो काली-पीली उँगलियों में समा गई थी; धुआँ सीधे उँगलियों से निकल रहा था, ताज्जुब की बात यह थी कि चाचा की उँगलियाँ जल नहीं रही थीं...दूसरा हाथ गन्दे चीथड़े में बंधा था. जूतों पर लेस के बदले रस्सियाँ थीं. सिर्योझा ने सब कुछ देखा और पूछा:
 “आप क्या कोरोस्तेल्योव के पास आए हैं?”
 “कौन कोरोस्तेल्योव?” चाचा ने पूछा. “मैं कोरोस्तेल्योव को नहीं जानता.”
 “मतलब, आप लुक्यानिच के पास आए हैं?”
 “मैं लुक्यनिच को भी नहीं जानता.”
 “और उनमें से कोई भी घर में नहीं है,” सिर्योझा ने कहा. “सिर्फ पाशा बुआ और मैं ही घर पर हैं. और, आपको दर्द नहीं होता?”
 “दर्द क्यों होने लगा?”
 “आप अपनी उँगलियाँ जला रहे हो.”
 “आ!”
चाचा ने बीड़ी का आख़िरी कश लिया, छोटे से टुकड़े को ज़मीन पर फेंका और पैर से कुचल दिया.
 “और क्या दूसरा हाथ पहले ही जला लिया है?” सिर्योझा ने पूछा.
उसके सवाल का जवाब दिए बिना चाचा ने उसकी ओर गंभीर, परेशान नज़र से देखा. ‘क्या देख रहा है ऐसे?’ सिर्योझा ने सोचा. चाचा ने पूछा, “और, तुम लोग रहते कैसे हो? बढ़िया?”
 “धन्यवाद,” सिर्योझा ने कहा, “बढ़िया.”
 “बहुत दौलत है?”
 “कैसी दौलत?”
 “अच्छा, क्या क्या है तुम्हारे पास?”
 “मेरे पास सैकल है,” सिर्योझा ने कहा. “और खिलौने हैं. हर तरह के : चाभी वाले हैं, और बिना चाभी वाले भी. और ल्योन्या के पास थोड़े से ही हैं, सिर्फ झुनझुने.”
 “और कटपीस हैं?” चाचा ने पूछा. और यह सोचकर कि शायद सिर्योझा को यह शब्द समझ में नहीं आया होगा, उसने समझाया, “कपड़ा – समझ रहे हो? सूट के लिए, ड्रेस के लिए.”
 “हमारे पास नहीं हैं कटपीस,” सिर्योझा ने कह, “वास्का की माँ के पास हैं.”
 “और वो कहाँ रहती है? वास्का की माँ?”
मालूम नहीं यह बातचीत कहाँ पहुँचती, मगर तभी फ़ाटक की कुंडी बजी और लुक्यानिच आँगन में आया. उसने पूछा, “कौन हो तुम? क्या चाहिए?”
चाचा लकड़ियों के ढेर से उठा और बहुत विनम्र और दयनीय हो गया.
 “काम ढूँढ़ रहा हूँ, मालिक,” उसने जवाब दिया.
 “तो ऐसे घर घर क्यों घूम रहे हो?” लुक्यानिच ने पूछा. “काम कहाँ करते हो?”
 “इस समय मेरे पास कोई काम नहीं है,” चाचा ने कहा.
 “मगर, करते कहाँ थे?”
 “था – और अब नहीं है. बहुत पहले था.”
 “क्या जेल से आए हो?”
 “एक महीना पहले छूटा हूँ.”
 “किसलिए गए थे?”
 चाचा ने एक पैर से दूसरे पैर पर शरीर का भार रखते हुए जवाब दिया, “व्यक्तिगत संपत्ति का दुरुपयोग करने के जुर्म में. बिना किसी कारण के ही सज़ा सुना दी. कानून का खून ही था वो.”
 “मगर तुम घर क्यों नहीं गए, इधर उधर क्यों भटक रहे हो?”
 “मैं गया था,” चाचा ने कहा, “मगर बीबी ने मुझे घुसने नहीं दिया. उसने दूसरा कोई ढूँढ़ लिया : दुकान का असिस्टेंट! और फिर वहाँ मेरा नाम भी नहीं दर्ज कर रहे हैं...अब मैं अपनी माँ के पास जा रहा हूँ. चीता में मेरी माँ रहती है.”
सिर्योझा, मुँह थोड़ा सा खोले, सुन रहा था. चाचा जेल में था!...लोहे के सींकचों वाली जेल में, दाढ़ीवाले पहरेदारों के साथ, जो ऊपर से नीचे तक हथियार लिए रहते हैं, लंबे लंबे डंडे और तलवारें, जैसा कि किताबों में लिखा होता है – और कहीं किसी चीता में उसकी माँ उसका इंतज़ार कर रही है, और, शायद, रोती है, बेचारी...उसे बड़ी ख़ुशी होगी, जब ये उसके पास पहुँचेगा. वह इसके लिए कोट और सूट सिएगी. और जूतों के लिए लेस भी ख़रीदेगी...  

 “चीता में...बिल्कुल उस छोर पर...” लुक्यानिच ने कहा. “तो फिर क्या? कुछ कमाएगा –वमाएगा कि फिर से वही, व्यक्तिगत संपत्ति का दुरुपयोग?...”
चाचा ने भौंहें चढ़ाईं और बोला,
 “क्या आपके लिए लकड़ियाँ काट दूँ?”
 “ठीक है, काट दे,” लुक्यानिच ने कहा और वह शेड से आरी लाया.
आवाज़ें सुनकर पाशा बुआ बाहर आई और उसने ड्योढ़ी से बातचीत सुनी. न जाने क्यों उसने मुर्गियों को शेड में खदेड़ दिया, हालाँकि उनके सोने में अभी बहुत वक़्त था, और ताला लगाकर उन्हें बन्द कर दिया. और चाभी अपनी जेब में रख ली. और हौले से सिर्योझा से बोली,
 “सिर्योझा, जब तक तू यहाँ घूम रहा है, ध्यान रखना कि चाचा आरी लेकर न चला जाए.”
सिर्योझा चाचा के चारों ओर घूमता रहा और बड़ी दिलचस्पी से, शक से, सहानुभूति से और कुछ डर से उसे देखता रहा. उसके असाधारण और रहस्यमय भाग्य के प्रति आदर के कारण उससे बातें करने का निश्चय वह नहीं कर पाया, और चाचा भी चुप रहा. वह दिल लगाकर लकड़ियाँ काट रहा था और केवल कभी कभी कुछ देर के लिए बैठ जाता था, बीडी बनाकर पीने के लिए.
सिर्योझा को खाना खाने के लिए बुलाया गया. मम्मा और कोरोस्तेल्योव घर में नहीं थे, तीनों ने ही खाना खाया. सब्ज़ियों का सूप खाने के बाद लुक्यानिच ने पाशा बुआ से कहा, “उस चोर के बच्चे को मेरे पुराने फ़ेल्ट-बूट दे देना.”
 “अभी तो तुम ही उन्हें पहन सकते हो,” पाशा बुआ ने कहा. “उसके लेस वाले जूते अच्छे ही हैं.”
 “चीता तक उन लेस वाले जूतों में कैसे जाएगा,” लुक्यानिच ने कहा.
 “मैं उसे खाना खिला दूँगी,” पाशा बुआ ने कहा, “मेरे पास कल का काफ़ी सूप बचा है.”
खाना खाने के बाद लुक्यानिच आराम करने के लिए लेटा, और पाशा बुआ ने मेज़पोश निकाल कर तह करके शेल्फ़ में रख दिया.
 “तुमने मेज़पोश क्यों निकाला?” सिर्योझा ने पूछा.
 “बिना मेज़पोश के भी ठीक ठाक ही है,” पाशा बुआ ने कहा, “ वह कितना गन्दा है!”
उसने सूप गरम किया, ब्रेड के स्लाईस काटे और दुखी आवाज़ में उसने चाचा को बुलाया.
 “अन्दर आईये, खा लीजिए.”
चाचा अन्दर आया और बड़ी देर तक कपड़े से पैर साफ़ करता रहा. फिर उसने हाथ धोए, और पाशा बुआ ने डोलची से उसके हाथ पर पानी डाला. रैक में साबुन के दो टुकड़े थे : एक गुलाबी, दूसरा सीधा सादा भूरा; चाचा ने भूरा वाला लिया – या, शायद उसे मालूम नहीं था कि नहाते तो गुलाबी साबुन से हैं, या, फिर गुलाबी साबुन को इस्तेमाल करने का उसे हक ही नहीं था, जैसे कि मेज़पोश का और आज के बने सूप का. और वैसे भी वह सकुचा रहा था और बड़ी सावधानी से, अविश्वास से किचन में आया जैसे उसे डर हो कि कहीं फ़र्श न टूट जाए. पाशा बुआ बड़ी मुस्तैदी से उस पर नज़र रखे हुए थी. मेज़ पर बैठते हुए चाचा ने सलीब का निशान बनाया. सिर्योझा ने देखा कि पाशा बुआ को यह अच्छा लगा. उसने प्लेट पूरी भर दी और प्यार से बोली, “ “खाईये. भरपेट खाईये.”
चाचा ने सूप खाया और ब्रेड के तीन टुकड़े चुपचाप और एकदम खा गया, अपने जबड़े जल्दी जल्दी चलाते हुए और नाक से ज़ोर ज़ोर से साँस लेते हुए. पाशा बुआ ने उसे और सूप दिया और वोद्का का छोटा सा गिलास भी दिया.
 “अब ये पी सकते हो,” उसने कहा, “मगर खाली पेट के लिए ये अच्छा नहीं है.”
चाचा ने गिलास उठाया और कहा, “आपकी सेहत के लिए, बुआ. भगवान आपका भला करे.”
उसने सिर पीछे किया, मुँह खोला और ग्लास में रखी पूरी की पूरी वोद्का एक पल में अन्दर डाल दी. सिर्योझा ने देखा – खाली ग्लास मेज़ पर रखा है.
 ‘शाबाश!’ सिर्योझा ने सोचा.
अब चाचा पहले जैसा गपागप नहीं खा रहा था और बातें कर रहा था. उसने बताया कि कैसे वह अपनी पत्नी के पास गया जिसने उसे घर में घुसने नहीं दिया.
 “और कुछ दिया भी नहीं,” उसने कहा. “हमारे पास काफ़ी सामान था : सिलाई-मशीन, ग्रामोफ़ोन, बर्तन..., कुछ भी नहीं दिया. “निकल जाओ,” कहा, “चोर कहीं के, जहाँ से आए हो, वहीं वापस जाओ, तुमने मेरी ज़िन्दगी बर्बाद कर दी.” मैंने कहा, “कम से कम ग्रामोफ़ोन तो दो, हम दोनों ने मिलकर ख़रीदा था.” मगर वह उसे देना नहीं चाह रही थी. मेरे सूट से अपने लिए ड्रेस बना ली. और मेरा ओवरकोट पुरानी चीज़ों की दुकान में बेच दिया.”
 “और पहले कैसे रहते थे?” पाशा बुआ ने पूछा.
 “रहते थे – अच्छी तरह रहते थे, उससे बढ़िया हो ही नहीं सकता था,” चाचा ने जवाब दिया. “पागल की तरह प्यार करती थी मुझसे. मगर अब उसके पास दुकान का असिस्टेंट है. मैंने देखा उसे: कुछ भी ख़ास नहीं है उसमें. कोई चेहरा-मोहरा है ही नहीं. क्या देख कर वह रीझ गई! सिर्फ़ इस बात पर कि वह दुकान का असिस्टेंट है. ज़ाहिर है, यही बात है.”
उसने अपनी माँ के बारे में भी बताया, कितनी पेन्शन मिलती है उसे और कैसे उसने उसे एक पार्सल भेजा था. पाशा बुआ बिल्कुल दयालु हो गई : उसने चाचा को उबला हुआ माँस दिया, और चाय दी और बीड़ी पीने की इजाज़त भी दी.
 “बेशक,” चाचा ने कहा, “अगर मैं माँ के पास कम से कम ग्रामोफ़ोन लेकर जाता तो बेहतर होता.”
 ‘ बेशक, बेहतर होता,’ सिर्योझा ने सोचा. ‘वे दोनों रेकॉर्ड्स लगाया करते.’
 “हो सकता है, कोई काम भी मिल जाए, तो फिर ठीक रहेगा.” पाशा बुआ ने कहा.
 “हम जैसों को काम पर रखना लोगों को पसन्द नहीं आता,” चाचा ने कहा और पाशा बुआ ने गहरी साँस लेकर सिर हिलाया, जैसे उसे चाचा से सहानुभूति हो, और उन लोगों से भी जो उसे काम पर रखना नहीं चाहते.
 “हाँ,” चाचा ने कहा, कुछ देर चुप रहने के बाद, “मैं शायद वैसा, दुकान का असिस्टेंट नहीं बनता – मगर और कुछ भी बन सकता था; मगर मैंने यूँ ही अपना समय बेकार गँवाया.”
“ और आपने क्यों उसे बेकार गँवाया?” पाशा बुआ ने सादगी से कहा, “आप उसे बेकार न गँवाते तो बेहतर होता.”
 “अब कहने से क्या फ़ायदा,” चाचा ने कहा, “सब कुछ हो जाने के बाद. अब किसी से कुछ कहने में कोई मतलब ही नहीं है. अच्छा, धन्यवाद आपको, बुआ. जाऊँ, लकड़ियाँ काट दूँ.”
वह आँगन में गया. सिर्योझा को पाशा बुआ ने अब बाहर नहीं जाने दिया, क्योंकि हल्की हल्की बारिश होने लगी थी.
 “वो ऐसा क्यों है?” सिर्योझा ने पूछा, “ये चाचा.”
 “जेल में था,” पाशा बुआ ने कहा, “तूने तो सुना ही था.”
 “मगर वह जेल गया ही क्यों?”
 “बुरे काम करता था, इसीलिए गया. अगर अच्छे काम करता – तो उसे बन्द नहीं करते.”
लुक्यानिच ने खाना खाने के बाद आराम किया और वापस अपने ऑफ़िस जाने लगा. सिर्योझा ने उससे पूछा, “अगर बुरे काम करते हैं, तो क्या जेल भेज देते हैं?”
 “देखो, ऐसा है,” लुक्यानिच ने कहा, “उसने औरों की चीज़ें चुराईं. मैंने, मिसाल के तौर पर, काम किया, पैसे कमाए, और उसने आकर चुरा लिए : क्या ये अच्छी बात है?”
 “नहीं.”
 “ज़ाहिर है – ये बुरा काम है.”
 “वो बुरा है?”
 “ज़ाहिर है – बुरा है.”
 “तो फिर तुमने उसे अपने बूट देने को क्यों कहा?”
 “मुझे उस पर दया आ गई.”
 “जो बुरे होते हैं – उन पर तुम्हें दया आती है?”
 “देखो, बात ये है कि,” लुक्यानिच ने कहा, “मुझे उस पर दया इसलिए नहीं आई, कि वह बुरा है, बल्कि इसलिए आई, कि वह क़रीब-क़रीब नंगे पैर था. और बस ....अच्छा नहीं लगता, जब कोई बुरी हालत में होता है...हाँ, मगर आम तौर से...मैं उसे बड़ी ख़ुशी से, ज़रूर अपने जूते दे देता, अगर वह अच्छा इन्सान होता...मैं चला ऑफ़िस!” लुक्यानिच ने कहा और भाग गया, जल्दी जल्दी .
         
 ‘अजीब है,’ सिर्योझा ने सोचा, ‘जो वह कह रहा है उसमें से कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है.’
उसने खिड़की से हल्की भूरी बारिश की ओर देखा और लुक्यानिच के पहेली बुझाने वाले शब्दों को सुलझाने की कोशिश करने लगा...लंबे कानों वाली टोपी पहने चाचा सड़क से गुज़रा, बगल में जूते दबाए, एक दूसरे पर रखे हुए, इस तरह कि उनकी एड़ियाँ दोनों ओर से बाहर आ रही थीं. मम्मा आई और लाल कंबल में लिपटे ल्योन्या को शिशु-गृह से लाई...
 “मम्मा!” सिर्योझा ने कहा. “तुमने बताया था, याद है, कि एक लड़के ने कॉपी चुराई थी. क्या उसे जेल भेज दिया गया था?”
 “क्या, तू भी!” मम्मा ने कहा, “बेशक, नहीं भेजा.”
 “क्यों?”
 “वह छोटा था. उसकी उम्र आठ साल थी.”
 “छोटे बच्चों को माफ़ है?”
 “क्या माफ़ है?”
 “चोरी करना.”
 “नहीं, छोटों को भी चोरी नहीं करना चाहिए,” मम्मा ने कहा, “मगर मैंने उसे समझाया, और अब वह कभी कुछ नहीं चुराता. मगर तुम यह किसलिए पूछ रहे हो?”
सिर्योझा ने जेल वाले चाचा के बारे में बताया.
 “अफ़सोस की बात है,” मम्मा ने कहा, “कि कभी कभी ऐसे लोग होते हैं. हम इस बारे में बात करेंगे, जब तुम बड़े हो जाओगे. प्लीज़, पाशा बुआ से रफ़ू करने की पट्टी लाकर मुझे दो.”
सिर्योझ ने पट्टी लाकर दी और पूछा,
 “मगर उसने चोरी क्यों की?”
 “काम नहीं करना चाहता था, इसीलिए चोरी की.”
 “और उसे मालूम था कि उसे जेल भेज देंगे?”
 “बेशक, मालूम था.”
 “उसे, क्या, ज़रा भी डर नहीं लगा? मम्मा! क्या वह डरावनी नहीं होती – जेल?”
 “ओह, बस हो गय!” मम्मा को गुस्सा आ गया.  “मैंने कह दिया कि यह सब सोचने के लिए तुम अभी बहुत छोटे हो! किसी और चीज़ के बारे में सोचो! मैं ऐसी बातें सुनना भी नहीं चाहती!”
सिर्योझा ने उसकी चढ़ी हुई भौंहों की तरफ़ देखा और पूछना बन्द कर दिया. वह किचन में गया, डोलची से बाल्टी में से पानी निकाला, उसे ग्लास में डाला और एकदम, एक घूँट में पीने की कोशिश की; मगर उसने सिर को चाहे कितना ही पीछे करने की कोशिश की और कितना ही चौड़ा मुँह क्यों न खोला – यह हुआ ही नहीं, बस वह पानी से पूरी तरह भीग ज़रूर गया. पीछे, कॉलर के पीछे भी पानी गिरकर पीठ से बहने लगा. सिर्योझा ने यह बात छुपा ली कि उसकी कमीज़ गीली हि, वर्ना तो वे हो-हल्ला मचाने लगते और उसके कपड़े बदलने और डाँटने लगते. और जब तक सिर्योझा के सोने का वक़्त हुआ, कमीज़ सूख गई थी.
 ...बड़े लोगों ने सोचा कि वह सो रहा है और वे डाईनिंग रूम में ज़ोर से बातचीत करने लगे.
 “असल में उसे क्या चाहिए,” कोरोस्तेल्योव ने कहा, “उसे सिर्फ़ ‘हाँ’ में या ‘ना’ में जवाब चहिए. और अगर इसके बीच में कुछ कहा जाए तो उसे समझ में नहीं आता.”
 “मैं तो भाग ही गया,” लुक्यानिच ने कहा, “जवाब नहीं दे सका.”
 “हर उम्र की अपनी अपनी कठिनाईयाँ होती हैं,” मम्मा ने कहा, “और बच्चे के हर सवाल का जवाब देना ज़रूरी भी नहीं है. उसके साथ उस चीज़ के बारे में बहस क्यों की जाए, जो उसकी समझ से परे है? इससे क्या हासिल होगा? सिर्फ़ उसकी चेतना धुंधला जाएगी और ऐसे विचारों को जन्म देगी जिनके लिए अभी वह बिल्कुल तैयार नहीं है. उसके लिए सिर्फ़ इतना जानना काफ़ी है कि इस आदमी ने अपराध किय था और उसे सज़ा मिली. मैं आपसे विनती करती हूँ – प्लीज़, ऐसे विषय पर उसके साथ बातें न करें!”
 “क्या हम बात करते हैं?” लुक्यानिच ने अपना पक्ष रखते हुए कहा, “वो ही बातचीत करता है!”
 “कोरोस्तेल्योव!” अंधेरे कमरे से सिर्योझा ने पुकारा.

वे सब एकदम चुप हो गए.

 “हाँ?” कोरोस्तेल्योव ने अन्दर आते हुए कहा.

 “दुकान का असिस्टेंट कौन होता है?”

 “तू S S S! - ” कोरोस्तेल्योव ने कहा. “तू सो क्यों नहीं रहा है? फ़ौरन सो जा!” मगर उस आधे अंधेरे में सिर्योझा की पूरी खुली, चमकती आँखें उम्मीद से उसकी ओर देख रही थीं; और जल्दी जल्दी फुसफुसाते हुए (जिससे कि मम्मा सुन न ले और गुस्सा न करने लगे) कोरोस्तेल्योव ने उसके सवाल का जवाब दिया...