सिर्योझा-1
लेखिका: वेरा
पानोवा
अनुवाद: आ. चारुमति
रामदास
अध्याय 1
कौन है ये सिर्योझा
और वह कहाँ रहता है?
कहते हैं कि वह लड़की जैसा है. ये तो सरासर
मज़ाक हुआ! लड़कियाँ तो फ्रॉक पहनती हैं, मगर सिर्योझा ने तो कब का फ्रॉक पहनना छोड़
दिया है. क्या लड़कियों के पास गुलेल होती है? मगर सिर्योझा के पास तो गुलेल है,
उससे पत्थर मार सकते हैं. गुलेल उसे शूरिक ने बनाकर दी थी. इसके बदले में सिर्योझा
ने शूरिक को अपनी सारी डोरों की रीलें दे दी थीं जिन्हें वह अपनी पूरी ज़िन्दगी
इकट्ठा करता रहा था.
मगर, इसमें उसका क्या कुसूर कि उसके बाल
ही ऐसे हैं; कितनी ही बार मशीन से काटे; सिर्योझा बेचारा चुपचाप बैठा रहता है,
तौलिए से ढँका हुआ, और आख़िर तक बर्दाश्त करता रहता है; मगर वे हैं कि फिर से बढ़
जाते हैं.
मगर है वह होशियार, सभी ऐसा कहते हैं. ढेर
सारी किताबें उसे ज़ुबानी याद हैं. दो-तीन बार किताब पढ़कर सुना दो, और बस, उसे याद
हो जाती है. उसे अक्षर भी मालूम हैं - मगर ख़ुद पढ़ने में बहुत देर लगती है. किताबें
रंगबिरंगी पेंसिलों से पूरी रंग गईं हैं, क्योंकि सिर्योझा को तस्वीरों में रंग
भरना अच्छा लगता है. तस्वीरें चाहे रंगीन ही क्यों न हों, वह अपनी पसन्द से उनमें
दुबारा रंग भरता है. किताबें ज़्यादा देर तक नई नहीं रहतीं, उनके टुकड़े-टुकड़े हो
जाते हैं. पाशा बुआ उन्हें करीने से लगाती है, सीती है और किनारों से फट गए पन्नों
को चिपकाती है.
कभी कोई पन्ना गुम हो जाता है – सिर्योझा
उसे ढूँढ़ने लगता है और तभी चैन लेता है जब उसे खोज लेता है: अपनी किताबों से वह
बहुत प्यार करता है, हालाँकि उनमें लिखी बातों पर दिल से भरोसा नहीं करता. कहीं
जानवर भी बातें करते हैं; और कालीन-हवाई जहाज़ उड़ नहीं सकता क्योंकि उसमें इंजिन ही
नहीं होता, ये तो हर बेवकूफ़ जानता है.
और कोई उन बातों पर भरोसा करे भी तो कैसे,
जब चुडैल के बारे में पढ़कर सुनाते हैं और फ़ौरन ये भी कह देते हैं कि , ‘मगर,
सिर्योझेन्का, चुडैलें होती ही नहीं हैं.’
मगर, फिर भी, उससे बर्दाश्त नहीं होता जब
वो लकड़हारा और उसकी बीबी धोखे से अपने बच्चों को जंगल में ले जाते हैं, जिससे वे
रास्ता भूल जाएँ और कभी भी लौटकर घर न आ सकें. हालाँकि डंडे वाले लड़के ने उन सबको
बचा लिया , मगर ऐसी बातों के बारे में सुनना मुश्किल है. सिर्योझा इस किताब को
पढ़कर सुनाने की इजाज़त नहीं देता.
सिर्योझा अपनी माँ, पाशा बुआ और लुक्यानिच
के साथ रहता है. उनके घर में तीन कमरे हैं. एक में सिर्योझा माँ के साथ सोता है,
दूसरे में पाशा बुआ और लुक्यानिच और तीसरा कमरा है – डाइनिंग रूम. जब मेहमान आते
हैं तो डाइनिंग रूम में खाना खाते हैं, और जब मेहमान नहीं होते तो किचन में. इसके
अलावा टेरेस है, और आँगन भी. आँगन में मुर्गियाँ हैं. दो लम्बी-लम्बी क्यारियों
में प्याज़ और मूली लगी हैं. मुर्गियाँ क्यारियाँ न खोद दें, इसलिए उनके चारों ओर
कंटीली सूखी टहनियाँ लगी हैं; और जब भी सिर्योझा को मूली तोड़नी पड़ती है, ये काँटे
ज़रूर उसके पैरों को खुरच देते हैं.
कहते हैं कि उनका शहर छोटा-सा है.
सिर्योझा और उसके दोस्तों का मानना है कि ये गलत है. बड़ा ही है शहर. उसमें दुकानें
हैं, वाटर-टॉवर है, स्मारक हैं, सिनेमाघर भी है. कभी-कभी माँ सिर्योझा को अपने साथ
सिनेमा ले जाती है. “मम्मा”, जब हॉल में अँधेरा हो जाता है तो सिर्योझा कहता है,
“अगर कोई समझने वाली बात हो तो मुझे बताना.”
सड़कों पर कारें दौड़ती हैं. ड्राईवर
तिमोखिन बच्चों को अपनी लॉरी में घुमाने ले जाता है. मगर, ऐसा कभी-कभी ही होता है.
ये तभी होता है जब तिमोखिन ने वोद्का नहीं पी हो. तब उसकी नाक-भौंह चढ़ी रहती हैं,
वो बात नहीं करता है, सिगरेट पीता रहता है, थूकता रहता है, और सबको घुमा देता है.
मगर जब वह ख़ुशी में गुज़रता है – तो उससे पूछना भी बेकार है, कोई फ़ायदा नहीं होगा :
हाथ हिलाएगा खिड़की से और चिल्लाएगा: “नमस्ते, बच्चों! आज मुझे नैतिक अधिकार नहीं
है! मैंने पी रखी है!”
जिस सड़क पर सिर्योझा रहता है, उसका नाम है दाल्न्याया (दाल्न्याया-
दूरस्थ-अनु.) . सिर्फ नाम ही है दाल्न्याया: वैसे तो सभी कुछ उसके पास ही है.
चौक तक – क़रीब दो किलोमीटर, वास्का कहता है. और सव्खोज़ (सव्खोज़ – सोवियत फ़ार्म –
अनु.) ‘यास्नी बेरेग’ तो और भी पास है, वास्का कहता है. ’यास्नी बेरेग’ सव्खोज़ से ज़्यादा महत्वपूर्ण और कुछ भी नहीं है. वहाँ
लुक्यानिच काम करता है. पाशा बुआ वहाँ हैरिंग मछली और कपड़े ख़रीदने जाती है. माँ का
स्कूल भी सव्खोज़ में है. त्यौहारों पर सिर्योझा माँ के साथ सुबह के प्रोग्राम में
जाता है. वहाँ उसकी पहचान लाल बालों वाली फ़ीमा से हुई. वह बड़ी है, आठ साल की. उसकी
चोटियाँ कानों पर 8 के अंक की तरह होती हैं, और चोटियों में रिबन लिपटॆ रहते हैं,
फूल की तरह : या तो काले रिबन, या नीले, या सफ़ेद, या भूरे; फ़ीमा के पास कई सारे
रिबन हैं. सिर्योझा का तो ध्यान ही नहीं जाता, मगर फ़ीमा ने ख़ुद ही उससे पूछा,
“तूने ध्यान दिया, मेरे पास कितने सारे रिबन हैं”
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