अध्याय 12
वास्का के मामा से पहचान होने के परिणाम
कालीनिन और दाल्न्याया रास्तों के
बीच ख़ुफ़िया संबंध बन रहे हैं. चर्चाएँ हो रही हैं. शूरिक यहाँ-वहाँ जाता है,
भागदौड़ करता है और सिर्योझा को ख़बर देता है. ख़यालों में डूबा, अपने साँवले, माँसल
पैरों से वह उतावलेपन से झपाझप चलता है, और उसकी काली आँखें गोल गोल घूमती रहती
हैं. उनका यह गुण है : जब भी शूरिक के दिमाग़ में कोई नया ख़याल आता है, वे
दाएँ-बाएँ तेज़ी से घूमने लगती हैं और हर कोई समझ जाता है कि शूरिक के दिमाग़ में
नया ख़याल आया है. माँ परेशान हो जाती है, और पापा, ड्राईवर तिमोखिन, पहले से ही
शूरिक को बेल्ट का डर दिखाने लगते हैं. क्योंकि शूरिक के नए ख़याल हमेशा ख़तरनाक
होते हैं. इसीलिए माता-पिता चिंता में डूब जाते हैं, उनकी तो यही इच्छा होती है कि
उनका बेटा सही-सलामत रहे.
बेल्ट पर तो शूरिक ने थूक दिया. बेल्ट क्या चीज़ है, जब कालीनिन रास्ते के
लड़के गोदना करवाने के लिए तैयार हैं. वे इसकी तैयारी बड़े संगठित होकर, सामूहिक रूप
से कर रहे हैं. ख़ास बातें : उन्होंने शूरिक और सिर्योझा से गोदने की सारी जानकारी
ले ली है : वास्का के मामा के शरीर पर कहाँ कौन सा गोदना है; शूरिक और सिर्योझा की
सूचनाओं के आधार पर उन्होंने चित्र बनाए, और अब वे शूरिक और सिर्योझा को अपने गुट
में लेने से इनकार कर रहे हैं, कहते हैं. “तुम जैसे लोगों को कौन लेगा.” शैतान. इस
दुनिया में सच्चाई कहाँ है?
और, किसी से शिकायत भी नहीं कर सकते – क़सम खाई थी कि इस दुनिया में –
मतलब दाल्न्याया रास्ते पर – किसी को भी नहीं बताएँगे. दाल्न्याया रास्ते पर रहती
है मशहूर चुगलख़ोर – लीदा; वह बड़ों को नमक मिर्च लगाकर सब कुछ बता देगी – सिर्फ़ जलन
के मारे, फ़ायदा तो उसका कुछ भी नहीं है – वे हो-हल्ला मचाएँगे, स्कूल भी इसमें दख़ल
देगा, शिक्षकों की कौंसिल में और पालकों की मीटिंगों में इस पर बहस होगी, और काम
की किसी चीज़ के बदले एक लंबी चौड़ी उकताहट भरी कार्रवाई होगी.
इसी कारण से कालीनिन रास्ता दाल्न्याया से अपने सारे प्लान्स छुपाता है.
मगर शूरिक से छुपाना कैसे मुमकिन है. फिर उसने वे चित्र भी देख लिए हैं. शानदार
चित्र ड्राइंग पेपर पर और ऑईल पेपर पर.
“उन्होंने अपने दिमाग से भी
चित्र बनाए हैं,” शूरिक ने सिर्योझा को सूचित किया. “हवाई जहाज़ का चित्र बनाया है,
फ़व्वारे वाली व्हेल मछली, नारे...तुम्हारे ऊपर कागज़ रखा जाता है, और चित्र के
मुताबिक ऊपर से पिन चुभाई जाती है. बढ़िया चित्र आना चाहिए.”
सिर्योझा का जी घबराने लगा. पिन से!...
मगर जो शूरिक के लिए संभव है, वह सिर्योझा भी कर सकता है.
“हाँ!” उसने बनावटी ठंडेपन से
कहा – “बढ़िया ही आएगा चित्र.”
कालीनिन वाले बच्चे शूरिक और सिर्योझा के ऊपर न केवल व्हेल मछली, बल्कि
छोटा सा नारा भी गोदने के लिए तैयार नहीं थे. बेकार ही में शूरिक सबके दरवाज़े
खटखटाता रहा, सबको यक़ीन दिलाता रहा, उन्हें तंग करता रहा. वे जवाब देते, “बस, भाग यहाँ
से. तू मज़ाक कर रहा है? दफ़ा हो जा.”
उसे भगाने लगे. हालात बहुत ही बिगड़ गए, जब तक कि शूरिक ने अपनी ओर
आर्सेन्ती को न मिला लिया.
आर्सेन्ती को सारे माता-पिता बहुत चाहते हैं. वह हमेशा पहला नंबर लाता
है, पढ़ाकू है, साफ़-सुथरा है और उसकी चलती भी ख़ूब है. सबसे मुख्य बात, उसके पास
अच्छा बुरा सोचने की बुद्धि है. काफ़ी मज़ाक हो जाने के बाद उसने कहा, “उन्होंने
हमारी जो मदद की है, उसे भूलना नहीं चाहिए, ऐसा मेरा ख़याल है. उन दोनों पर एक एक
अक्षर गोद देते हैं. उनके नाम का पहला अक्षर. तैयार है तू?” उसने शूरिक से पूछा.
“नहीं,” शूरिक ने जवाब दिया. “एक
अक्षर हमें मंज़ूर नहीं.”
“तो फिर दफ़ा हो जा,” पाँचवी
क्लास के दादा वालेरी ने कहा. “तुम्हें कुछ नहीं मिलेगा.”
शूरिक चला गया, मगर दूसरा कोई उपाय था ही नहीं – वह फिर से वापस आया और
बोला कि ठीक है, एक अक्षर ही कर दो : उसे ‘श’ (रूसी में इसे ш लिखते
हैं) और सिर्योझा को
‘स’ (रूसी में - С ). बस एक ही शर्त पर कि वह बढ़िया निकलना चाहिए, काम चलाऊ तरीक़े से नहीं.
सब कुछ कल ही हो जाना चाहिए, वालेरी के यहाँ, उसकी माँ दौरे पर गई थी.
नियत समय पर शूरिक और सिर्योझा वालेरी के यहाँ आए. बाहर ड्योढ़ी में वालेरी
की बहन लारीस्का बैठी थी, और वह कैनवास पर कढ़ाई कर रही थी. उसे वहाँ इसलिए बिठाया
गया था कि अगर कोई बाहर का आदमी आए तो उससे यह कह दे कि घर में कोई नहीं है. बच्चे
आँगन में स्नान-गृह के पास इकट्ठा हो गए :
सारे बच्चे, पाँचवी क्लास के और छठी क्लास के भी, और एक लड़की, मोटे, फ़ीके
चेहरे वाली, उसके चेहरे पर गंभीरता थी, और उसका निचला होंठ मोटा और फ़ीका था; ऐसा
लग रहा था कि इसी लटकते हुए होंठ के कारण चेहरे पर गंभीर और प्रभावशाली भाव थे, और
यदि लड़की उस होंठ को दबा दे तो वह बिल्कुल गंभीर और प्रभावशाली नहीं रहेगी...लड़की –
उसका नाम था कापा – कैंची से बैंडेज के टुकड़े काट काट कर तिपाई पर रख रही थी. कापा
अपने स्कूल में स्वास्थ्य-कमिशन की मेम्बर थी. तिपाई पर उसने साफ़ कपड़ा बिछाया था.
धुएँ से काले पड़ गए सँकरे स्नान गृह में, जिसमें छत के नीचे एक धुँधली,
छोटी सी खिड़की थी, ठीक देहलीज़ के पीछे एक नीचा लकड़ी का ब्लॉक था, और बेंच पर गोल
लिपटे हुए चित्र पड़े थे. अन्दर आकर लड़के वे चित्र देखते, उनके बारे में बहस करते,
मज़े से, जी भर के एक दूसरे को गालियाँ देते, और हर लड़का अपनी पसन्द का चित्र
चुनता. झगड़ा हो नहीं रहा था, क्योंकि एक ही तस्वीर को जितने चाहें उतने बच्चे चुन
सकते थे. शूरिक और सिर्योझा दूर से ही चित्र देखकर ख़ुश हो रहे थे, वे यह तय नहीं
कर पा रहे थे कि बेंच के पास जाएँ या नहीं : लड़के इज़्ज़तदार थे, आत्मनिर्भर थे और
होशियार थे.
आर्सेन्ती सीधा स्कूल से आया था, छठे पीरियड के बाद, अपनी बैग लिए. उसने
विनती की कि उसका सबसे पहले कर दिया जाए : बहुत होम वर्क है, उसने कहा, एक निबंध
लिखना है और जॉग्रफ़ी का भी बड़ा प्रश्न है. उसकी लगन के प्रति सम्मान दिखाते हुए
उसे सबसे पहले बुलाया गया. उसने बड़े सलीक़े से अपनी बैग बेंच पर रखी, मुस्कुराते
हुए कमीज़ उतारी और, कमर तक नंगे बदन से, दरवाज़े की ओर पीठ करके ब्लॉक पर बैठ गया.
उसे बड़े बच्चों ने घेर लिया. सिर्योझा और शूरिक को स्नान-गृह से बाहर
आँगन में धकेल दिया गया; उन्होंने कितना ही उछल उछल कर देखना चाहा, उन्हें कुछ भी
नज़र नहीं आया. बातचीत बन्द हो गई, धड़ाम् की आवाज़ और कागज़ की सरसराहट और कुछ देर के
बाद वालेरी की आवाज़ :
“काप्का! लारिस्का के पास भाग,
एक तौलिया देने को बोल.”
गंभीर काप्का भागी. उसका निचला होंठ थरथरा रहा था. वह भाग कर तौलिया लाई
और सिरों के ऊपर से वालेरी की ओर फेंक दिया.
“तौलिया किसलिए?” सिर्योझा ने
पूछा, उछल कर देखने की कोशिश करते हुए. “शूरिक! तौलिया किसलिए?”
“शायद खून बह रहा हो!” शूरिक ने
बेफ़िक्री से कहा - लड़कों के बीच में सिर घुसाने की कोशिश करते हुए , जिससे देख सके
कि क्या हो रहा है. एक लंबा लड़का अपना गंभीर चेहरा उनकी ओर करके हौले से, मगर धमकाते
हुए बोला, “ऐ, यहाँ गड़बड़ नहीं करने का!”
ख़ामोशी का जैसे अंत ही नहीं था. अनिश्चितता अंतहीनता तक थकाती रही.
सिर्योझा थक गया, बेचैन हो गया; उसका पतंग-कीड़े पकड़ना हो चुका, और वालेरी का आँगन
और लारिस्का को भी अच्छी तरह देखना भी हो चुका...आख़िर में बातचीत शुरू हो गई, हलचल
शुरू हो गई, बाज़ू में हट गए, और आर्सेन्ती बाहर निकला – ओह! वह पहचाना नहीं जा रहा
था: भयानक, गर्दन से कमर तक पूरा बैंगनी-बैंगनी – उसका सीना कहाँ है, उसकी सफ़ेद
पीठ कहाँ है – और कमर के चारों ओर बंधे तौलिए पर खून के और स्याही के धब्बे थे! और
चेहरा फक् – सफ़ेद फक्, मगर वह मुस्कुरा रहा था, हीरो है आर्सेन्ती! दृढ़ता से कापा
के पास आया, तौलिया हटाया और बोला,
“कस के बांध बैंडेज.”
“पहले बच्चों को निपटा दें,”
किसी ने कहा, “जिससे वे हंगामा न ख़ड़ा कर दें. बच्चों को निपटा दें.”
“तुम कहाँ हो, बच्चों?” बैंगनी
हाथों से स्नान-गृह से निकलते हुए वालेरी ने पूछा. “इरादा तो नहीं बदल दिया? चलो,
आ जाओ, शाबाश!”
कैसे कहें कि – “इरादा बदल
दिया”. हिम्मत कैसे होगी कहने की, जब वह, आर्सेन्ती, खड़ा है तुम्हारे सामने,
स्याही और खून में लथपथ, और मुस्कुराते हुए तुम्हारी ओर देख रहा है?...
‘एक ही तो अक्षर है – ज़्यादा देर
नहीं लगेगी!’ सिर्योझा ने सोचा.
शूरिक के पीछे पीछे वह अब खाली हो चुके स्नान-गृह में आया. बड़े बच्चे देख
रहे थे कि कैसे कापा आर्सेन्ती को बैण्डेज बांधती है. वालेरी ब्लॉक पर बैठा और
उसने पूछा,
“किसको कौन सा अक्षर?”
“मुझे ‘श’, (ш)”,” शूरिक ने कहा, “और
क्या तौलिए की ज़रूरत है?”
“तुम्हारा बदन वैसे भी गन्दा
होने वाला नहीं है,” वालेरी ने कहा, “हाथ पर गोदूँगा.”
उसने शूरिक का हाथ अपने हाथ में लिया और कोहनी से नीचे पिन चुभाई. शूरिक
उछला और चिल्लाया...”ओय!’
“ओय, करना है तो घर भाग जा,”
वालेरी ने कहा और एक बार फिर पिन चुभाई. “तू कल्पना कर,” उसने सलाह दी, “कि मैं
तेरे हाथ में चुभा हुआ काँटा निकाल रहा हूँ. तब दर्द नहीं होगा.”
शूरिक ने अपने आप को संभाला और एक भी बार नहीं चीखा, सिर्फ एक पैर से
दूसरे पैर पर उछलता
रहा और हाथ पर फूँक मारता रहा, जिस पर लाल लाल बिंदुओं जैसी एक के बाद एक खून की
बूँदें निकल रही थीं. वालेरी ने इन बिंदुओं के बीच की चमड़ी को पिन से खरोंचा –
शूरिक कूदा, एड़ियाँ ज़मीन पर मारीं, पूरी ताक़त से हाथ पर फूँक मारी, अब खून की धार
बह निकली.
’अक्षर ‘श’ (ш) लंबा है’, भय से फक् पड़ गए , बड़ी बड़ी आँखें फाड़े
एकटक खून की ओर देखते हुए बेचारे सिर्योझा ने सोचा – ‘पूरी तीन खड़ी डंडियाँ और
चौथी डंडी नीचे...बेचारा शूरिक. ‘स’ (С) उसके मुक़ाबले में छोटा है. बहादुर है शूरिक,
चिल्लाता नहीं है. मैं भी नहीं चिल्लाऊँगा.
ओय – ओय – ओय, भागना संभव नहीं है; हँसेंगे तुम पर,
शूरिक कहेगा कि मैं डरपोक हूँ...’
वालेरी ने बेंच से स्याही की बोतल उठाई और ब्रश से शूरिक पर पोत दी, ठीक
जहाँ खून था वहीं.
“हो गया!” उसने कहा, “अगला
बच्चा!”
सिर्योझा ने क़दम आगे बढ़ाए और हाथ बढ़ा दिया....
...यह हुआ था गर्मियों के अंत में, स्कूल में पढ़ाई अभी शुरू ही हुई थी,
दिन गर्म थे, सुनहरे- सपनों भरे – मगर अब है शरद ऋतु; नकचढ़ा आसमान खिड़कियों में;
पाशा बुआ ने खिड़कियों की चौखटों पर सफ़ेद कागज़ की पट्टियाँ चिपका दीं, दोनों चौखटों
के बीच रूई रखी और नमक से भरे छोटे छोटे ग्लास रख दिए...
सिर्योझा बिस्तर पर लेटा है. बिस्तर के पास दो कुर्सियाँ खिसका दी गई हैं
: एक पर खिलौनों का ढेर पड़ा है, और दूसरी पर सिर्योझा खेलता है. कुर्सी पर खेलना
बुरा लगता है. टैंक भी नहीं घुमाया जा सकता, और अगर, मान लो, दुश्मन को खदेड़ना हो,
तो उसके लिए जगह ही नहीं है; कुर्सी की पीठ तक जाते हो, और बस, ये कोई लड़ाई है?
बीमारी तब शुरू हुई जब सिर्योझा वालेरी के स्नान-गृह से बाहर निकला, अपने
दाहिने हाथ में बायाँ हाथ उठाए, जो सूज गया था, जल रहा था, स्याही से लथपथ था. वह
स्नान-गृह से निकला – रोशनी के कारण आँखों के सामने काले काले धब्बे घूमने लगे,
किसी की सिगरेट की बू भीतर गई – उसको उल्टी हो गई...वह घास पर लेट गया, बैण्डेज
में बंधा हाथ बिल्कुल जल गया था, उसमें खुजली हो रही थी. शूरिक और एक और लड़का उसे
घर ले गए. पाशा बुआ को कुछ भी पता नहीं चला, क्योंकि उसने लंबी आस्तीनों वाली कमीज़
पहनी थी. वह चुपचाप घर के अन्दर आया और पलंग पर लेट गया.
मगर जल्दी ही उल्टियाँ शुरू हो गईं, बुख़ार आ गया, पाशा बुआ सतर्क हो गई
और उसने मम्मा को स्कूल में फोन कर दिया, मम्मा भागकर आई, डॉक्टर आया, सिर्योझा के
कपड़े उतारे गए, बैण्डेज खोला गया, और सब लोग सकते में आ गए; वे पूछने लगे, मगर वह
जवाब नहीं दे रहा था – उसे सपने आने लगे, घिनौने, मितली लाने वाले: कोई एक
हट्टाकट्टा आदमी, लाल जैकेट में, नंगे बैंगनी हाथों वाला – उससे स्याही की बू आ
रही थी – लकड़ी का ब्लॉक, उस पर बैठा एक कसाई माँस काट रहा है – खून से लथपथ,
गालियाँ देते लड़के...वह सपने में दिखाई दे रहे दृश्य का वर्णन कर रहा था, मगर उसे
इस बात का गुमान ही नहीं था कि वह क्या कह रहा है. इस तरह से बड़ों को सारी बात पता
चल गई. बड़ी देर तक वे ये समझ नहीं पाए कि वह बुख़ार में छल्ले जैसे ब्रेड़-रोल के
बारे में क्या बड़बड़ा रहा है, आधे छल्ले जैसा ब्रेड़-रोल; जब हाथ की ज़ख़्म ठीक हो गई
और उसे धोया गया, तो उन्हें समझ में आया कि हाथ पर हमेशा के लिए भूरा-नीला आधा
छल्ला छप गया है, अक्षर ‘स’ (С).
वे सिर्योझा के साथ नर्मी से और प्यार से पेश आते
थे – और वे उसे वालेरी जितनी क्रूरता से ही सताते थे. ख़ास तौर से डॉक्टर : बड़े
अमानवीय तरीके से वे सिर्योझा को पेन्सिलिन पिलाते थे, और सिर्योझा, जो दर्द के
कारण नहीं रोता था, अपमान से हिचकियाँ लेकर रोने लगता, अपमान के सामने असहायता के
कारण, इस कारण से कि उसकी शालीनता का अपमान हुआ था...डॉक्टर के पास समय कम था, वह
सफ़ेद गाऊन में एक ख़तरनाक मौसी, नर्स, को भेज देते थे, जो एक ख़ास मशीन से सिर्योझा की
उँगलियाँ काटती और उन्हें दबाकर उनमें से खून निकालती. इन यातनाओं के बाद डॉक्टर
मज़ाक करते और सिर्योझा के सिर को सहलाते - ये तो सीधा सीधा अपमान ही था.
...कुर्सी पर खेलते खेलते थक कर, सिर्योझा लेट जाता
है और अपनी कठिन परिस्थिति के बारे में सोचता है. अपने इस दुर्भाग्य का मूल कारण
ढूँढ़ने की कोशिश करता है.
‘मैं बीमार
नहीं पड़ता,’ वह सोचता है, ‘अगर मैंने ये गोदना न करवाया होता. और मैंने गोदना न
करवाया होता, अगर मैं वास्का के मामा से न मिला होता, अगर वो वास्का के यहाँ न
आते. हाँ, अगर वे यहाँ आने का इरादा न करते तो कुछ भी नहीं होता, मैं तन्दुरुस्त
होता.’
मगर वास्का के मामा के लिए उसके मन में गुस्सा नहीं
है. बस, ज़ाहिर है कि दुनिया में एक चीज़ दूसरी चीज़ से जुड़ी होती है; कल्पना भी नहीं
कर सकते कि कब और कहाँ से ख़तरा आने वाला है. वे उसका दिल बहलाने की कोशिश करते
हैं. मम्मा ने उसे लाल मछलियों वाला एक्वेरियम भेंट में दिया. एक्वेरियम में पानी
के पौधे लगते हैं. मछलियों को एक डिब्बे से पाउडर निकाल कर खिलाया जाता है.
“उसे प्राणियों से इतना प्यार है,” मम्मा ने कहा,
“इससे उसका दिल बहलेगा.”
सही है, उसे प्राणी पसन्द हैं. वह ज़ायका बिल्ली से
प्यार करता था, अपने पालतू छोटे कौए गाल्या-गाल्या से प्यार करता था. मगर मछलियाँ –
वे तो प्राणी नहीं हैं.
ज़ायका रोएँदार और गर्माहट भरी है, उसके साथ खेल सकते थे, जब तक कि वह
इतनी बूढ़ी और उदास नहीं हुई थी. गाल्या-गाल्या मज़ेदार और ख़ुशगवार था, वह कमरों में
उड़ता, चम्मच चुराता और सिर्योझा के पुकारने पर जवाब देता था. मगर मछलियों से कैसी
ख़ुशी – डिब्बे में तैरती रहती हैं और कुछ भी नहीं कर सकतीं, सिर्फ़ पूँछ हिलाती
हैं...मम्मा समझती ही नहीं है.
सिर्योझा को चाहिए बच्चे, अच्छा खेल, अच्छी बातचीत. सबसे ज़्यादा उसे
शूरिक चाहिए. जब खिड़कियों की चौखट पर कागज़ नहीं चिपकाया गया था, और खिड़कियाँ खुली
थीं, शूरिक उसकी खिड़की के नीचे आ जाता था और उसे बुलाता था.
“सेर्गेइ! कैसा है तू?”
“यहाँ आओ!” उछल कर घुटनों पर
बैठते हुए सिर्योझा चिल्लाया.
“मुझे तुम्हारे पास नहीं आने
देते,” शूरिक ने कहा (खिड़की की देहलीज़ के नीचे उसका सिर दिखाई दे रहा था). “अच्छा
हो जा, और ख़ुद ही बाहर आ.”
“तू क्या कर रहा है?” सिर्योझा
ने परेशानी से पूछा.
“पापा ने मेरे लिए स्कूल बैग
ख़रीदी है,” शूरिक ने कहा. “स्कूल जाया करूँगा. बर्थ-सर्टिफिकेट भी दे दिया. और
आर्सेन्ती भी बीमार है. और बाकी कोई भी बीमार नहीं पड़ा. और मैं भी बीमार नहीं हूँ.
और वालेरी को दूसरे स्कूल में भेज दिया गया है, अब उसे बहुत दूर चलना पड़ता है.”
अचानक कितनी ख़बरें!
“टाटा! जल्दी से बाहर आ!” अब
शूरिक की आवाज़ दूर से आ रही थी. शायद पाशा बुआ आँगन में गई है...
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