अध्याय 14
बेचैनी
फिर से बीमारी! इस बार तो बिना किसी कारण के टॉन्सिल्स हो गए. फिर डॉक्टर ने कहा, “छोटी
छोटी गिल्टियाँ,” और उसे सताने के नए तरीके ढूँढ़ निकाले – कॉडलिवर ऑईल और
कम्प्रेस. और बुखार नापने के लिए भी कहा.
कम्प्रेस में क्या करते हैं : बदबूदार काला मरहम एक कपड़े के टुकड़े पर
लगाते हैं और तुम्हारी गर्दन पर रखते हैं. ऊपर से एक कड़ा, चुभने वाला कागज़ रखते
हैं. ऊपर से रूई. उसके ऊपर से बैण्डेज बाँधते हैं, बिल्कुल कानों तक. जिससे सिर
ऐसा हो जाता है जैसे लकड़ी के बोर्ड पर ठुकी हुई कील : घुमा ही नहीं सकते. बस उसी
तरह रहो.
ये तो भला हो उनका कि लेटे रहने की ज़बर्दस्ती नहीं करते. और जब सिर्योझा
को बुखार नहीं होता, और बाहर बारिश नहीं हो रही होती, तो वह बाहर घूमने भी जा सकता
है. मगर ऐसे संयोग कभी कभार ही होते हैं. क़रीब क़रीब हर रोज़ या तो बारिश होती है,
या फिर बुखार रहता है.
रेडियो चलता रहता है; मगर उस पर जो कुछ भी बोला जा रहा है या बजाया जा
रहा है, वह सब सिर्योझा के लिए दिलचस्प नहीं है.
और बड़े लोग तो बहुत आलसी हैं : जैसे ही कहानी पढ़ने के लिए या सुनाने के
लिए कहो, वे माफ़ी मांग लेते हैं ये कहकर कि वे काम कर रहे हैं.
पाशा बुआ खाना पकाती रहती है; उसके हाथ, सचमुच में काम में लगे होते हैं,
मगर मुँह तो खाली रहता है : एकाध कहानी ही सुना देती. या फिर मम्मा : जब वह स्कूल
में होती है, या ल्योन्या के लंगोट बदल रही होती है, या कॉपियाँ जाँच रही होती है,
तो बात और है; मगर जब वह आईने के सामने खड़ी रहती है और अपनी चोटियाँ कभी ऐसे तो
कभी वैसे बनाती है, और मुस्कुराती भी रहती है – उस समय वह क्या काम कर रही होती
है?
“मुझे पढ़ कर सुनाओ,” सिर्योझा
विनती करता है.
“रुको, सिर्योझेन्का,” वह जवाब
देती है. “मैं काम में हूँ.”
“और तुमने उन्हें क्यों खोल
दिया?” चोटियों के बारे में सिर्योझा पूछता है.
“दूसरी तरह से बाल बनाना चाहती
हूँ.”
“क्यों?”
“मुझे करना है.”
“तुम्हें क्यों करना है?”
“यूँ ही...”
“और हँस क्यों रही हो तुम?”
“यूँ ही...”
“यूँ ही क्यों?”
“ओह, सिर्योझेन्का, तू मेरा
दिमाग चाट रहा है.”
सिर्योझा सोचने लगा : मैं उसका दिमाग कैसे चाट रहा हूँ? और कुछ देर सोचने
के बाद कहता है:
“फिर भी तुम मुझे थोड़ा सा पढ़ कर
सुनाओ.”
“शाम को आऊँगी,” मम्मा कहती है,
“तब पढूँगी.”
मगर शाम को, लौटने के बाद, वह ल्योन्या को खिलाएगी, उसके हाथ-मुँह
धुलाएगी, कोरोस्तेल्योव से बातें करेगी और अपनी कॉपियाँ जाँचेगी. और पढ़ने में फिर
से टाल मटोल करेगी,
मगर देखो, पाशा बुआ ने अपना काम पूरा कर लिया है, और वह आराम करने बैठी
है, अपने कमरे में दीवान पर. हाथ घुटनों पर रखे हैं, ख़ामोश बैठी है, घर में कोई भी
नहीं है, तभी सिर्योझा उसे पकड़ लेता है.
“अब तुम मुझे कहानी सुनाओगी,”
रेडियो बन्द करके उसके पास बैठते हुए वह कहता है.
“हे भगवान!” वह थकी हुई आवाज़ में
कहती है, “कहानी सुनाऊँ तुझे. तुझे तो सारी की सारी मालूम हैं.”
“तो क्या हुआ. मगर, फिर भी तुम
सुनाओ.”
कितनी आलसी है!
“तो, एक बार एक राजा और रानी
रहते थे,” वह शुरू करती है, गहरी साँस लेकर. और उनकी एक बेटी थी. और तब एक ख़ूबसूरत
दिन...”
“वह सुन्दर थी?” सिर्योझा मांग
करते हुए उसे बीच ही में टोकता है.
उसे मालूम था कि बेटी सुन्दर थी; और सभी को यह मालूम है; मगर पाशा बुआ
छोड़ क्यों देती है? कहानियों में कुछ भी नहीं छोड़ना चाहिए.
“सुन्दर थी, सुन्दर थी. इतनी
सुन्दर, इतनी सुन्दर...एक, मतलब, ख़ूबसूरत दिन उसने सोचा कि शादी कर लूँ. कितने
सारे लड़के शादी का प्रस्ताव लेकर आए...
कहानी अपने ढर्रे पर चलती रहती है. सिर्योझा ध्यान से सुनता है, अपनी बड़ी
बड़ी, कठोर आँखों से शाम के धुँधलके में देखते हुए. उसे पहले से ही मालूम होता है
कि अब कौन सा शब्द आएगा, मगर इससे कहानी बिगड़ तो नहीं ना जाती. उल्टे ज़्यादा अच्छी
लगने लगती है.
शादी के लिए आए हुए लड़के, प्रस्ताव लेकर आना – इन शब्दों में उसे क्या
समझ में आता है – वह कुछ बता नहीं सकता था; मगर वह सब कुछ समझता था – अपने हिसाब
से. मिसाल के तौर पर ‘घोड़ा, जैसे ज़मीन में गड़ गया’ और फिर दौड़ने लगा – तो, इसका
मतलब ये हुआ कि उसे बाहर निकाला गया.
धुँधलका गहराने लगता है. खिड़कियाँ नीली हो जाती हैं, और उनकी चौखट काली.
दुनिया में कुछ भी सुनाई नहीं देता है, सिवाय पाशा बुआ की आवाज़ के, जो राजकुमारी
से शादी के लिए आए हुए लड़कों के दुःसाहसी कारनामों के बारे में कह रही है.
दाल्न्याया रास्ते के छोटे से घर में निपट ख़ामोशी छाई हुई है.
ख़ामोशी में सिर्योझा ‘बोर’ हो जाता है. कहानी जल्दी ख़तम हो जाती है :
दूसरी कहानी सुनाने के लिए पाशा बुआ किसी भी क़ीमत पर तैयार नहीं होती, उसके गुस्से
और उसकी विनती के बावजूद कराहते हुए और उबासियाँ लेते हुए वह किचन में चली जाती
है; और वह अकेला रह जाता है. क्या किया जाए?
बीमारी के दौरान खिलौनों से बेज़ार हो गया था. ड्राईंग बनाने से भी उकता
गया था. साईकिल तो कमरों में चला नहीं सकते – बहुत कम जगह है.
‘बोरियत’ ने सिर्योझा को बीमारी
से भी ज़्यादा जकड़ रखा है, उसकी हलचल को सुस्त बना दिया है, ख़यालों से भटका दिया
है. सब कुछ ‘बोरिंग’ है.
लुक्यानिच कुछ सामान ख़रीद कर लाया : भूरे रंग का डिब्बा, डोरी से बंधा
हुआ. सिर्योझा बहुत उतावला हो गया और बेचैनी से इंतज़ार करने लगा कि लुक्यानिच उस
डोरी को खोले. उसे काट देता, और बस! मगर लुक्यानिच बड़ी देर तक हाँफ़ते हुए उसकी कस
कर बंधी हुई गाँठें खोलता है – डोरी की ज़रूरत पड़ सकती है, वह उसे साबुत की साबुत
संभाल कर रखना चाहता है.
सिर्योझ आँखें फाड़ कर देख रहा है, पंजों के बल खड़े होकर...मगर भूरे
डिब्बे से, जहाँ कोई बढ़िया चीज़ हो सकती थी, निकलते हैं एक जोडी काले कपड़े के जूते,
रबर की पतली किनारी वाले.
सिर्योझा के पास भी जूते हैं, उसी तरह की लेस वाले, मगर वे कपड़े के नहीं,
बल्कि सिर्फ रबर के हैं. वह उनसे नफ़रत करता है, अब इन जूतों की ओर देखने में उसे
कोई दिलचस्पी नहीं है.
“ये क्या है?” मायूस होकर, सुस्त-लापरवाही
से वह पूछता है.
“जूते,” लुक्यानिच जवाब देता है.
“इन्हें कहते हैं ‘अलबिदा जवानी’” .
“मगर क्यों?”
“क्योंकि नौजवान ऐसे जूते नहीं
पहनते.”
“और क्या तुम बूढ़े हो?”
“जब मैंने ऐसे जूते पहने हैं, तो
इसका मतलब ये हुआ कि मैं बूढ़ा हूँ.”
लुक्यानिच पैर पटक कर देखता है और कहता है, “बढ़िया!”
और पाशा बुआ को दिखाने के लिए जाता है.
सिर्योझा किचन में कुर्सी पर चढ़ जाता है और बिजली की बत्ती जला देता है.
एक्वेरियम में मछलियाँ तैर रही हैं, अपनी बेवकूफ़ों जैसी आँखें फ़ाड़े. सिर्योझा की
परछाईं उन पर पड़ती है – वे तैर कर ऊपर की ओर आती हैं और खाने की उम्मीद में अपने
मुँह खोलती हैं.
‘ हाँ, ये मज़ेदार बात है,’ सिर्योझा
सोचता है, ‘क्या वे अपना ही तेल पियेंगी या नहीं?’
वह बोतल का ढक्कन निकालता है और एक्वेरियम में थोड़ा सा कॉडलिवर ऑइल डालता
है. मछलियाँ पूँछ नीचे करके, मुँह खोले टँगी रहती हैं, मगर वे तेल नहीं पीतीं.
सिर्योझा कुछ और तेल डालता है. मछलियाँ इधर-उधर भाग जाती हैं...
‘नहीं पीतीं,’ उदासीनता से
सिर्योझा सोचता है.
‘बोरियत’, ‘बोरियत’ ! ये बोरियत
उसे जंगलीपन और बेमतलब के कामों की ओर धकेलती है. वह चाकू लेता है और दरवाज़ों से
उन जगहों का पेंट खुरच डालता है, जहाँ उसके पोपड़े पड़ गए थे. इसलिए नहीं कि उसे
इससे ख़ुशी हो रही थी – मगर फिर भी कुछ काम तो था. ऊन का गोला लेता है, जिससे पाशा
बुआ अपने लिए स्वेटर बुन रही है, और उसे पूरा खोल देता है – इसलिए कि उसे फिर से
लपेट दे (जो उससे हो नहीं पाता). ऐसा करते हुए उसे हर बार ये महसूस होता है कि वह
कोई अपराध कर रहा है, कि पाशा बुआ उसे डाँटेगी, और वह रोएगा – और वह डाँटती है, और
वह भी रोता है, मगर कहीं दिल की गहराई में वह संतुष्ट है : थोड़ी डाँट-डपट हो गई,
रोना-धोना हो गया – देखो, और समय भी बिना कुछ हुए नहीं बीता.
बहुत ख़ुशी होती है जब मम्मा आती है और ल्योन्या को लाती है. घर में जान आ
जाती है : ल्योन्या चिल्लाता है, मम्मा उसे खिलाती है, उसके लंगोट बदलती है,
ल्योन्या के हाथ-मुँह धुलाए जाते हैं. अब वह काफ़ी कुछ इन्सान जैसा लगता है, उसके
मुक़ाबले, जब वह पैदा हुआ था. तब वह सिर्फ माँस का गोला ही था. अब वह मुट्ठी में
झुनझुना पकड़ सकता है, मगर इससे ज़्यादा की उससे उम्मीद नहीं की जा सकती. वह पूरे
दिन अपने शिशु-गृह में रहता है, अपनी कोई ज़िन्दगी जीता है, सिर्योझा से अलग.
कोरोस्तेल्योव देर से लौटता है. वह सिर्योझा से बात शुरू कर ही रहा होता
है, या उसे किताब पढ़ कर सुनाने के लिए राज़ी हो ही रहा होता है, तो टेलिफ़ोन बजने
लगता है, और मम्मा हर मिनट उनकी बातों में ख़लल डालती है. हमेशा उसे कुछ न कुछ कहना
ही होता है; वह इंतज़ार नहीं कर सकती, लोगों के काम ख़त्म होने तक. रात को सोने से
पहले ल्योन्या बड़ी देर तक चिल्लाता है. मम्मा कोरोस्तेल्योव को बुलाती है, उसे बस
कोरोस्तेल्योव ही चाहिए होता है – वह ल्योन्या को उठाए-उठाए कमरे में घूमता है और
शू—शू—करता है. मगर सिर्योझा का भी अब सोने का मन होता है और कोरोस्तेल्योव के साथ
बातचीत अनिश्चित काल तक टल जाती है.
मगर कभी कभी ख़ूबसूरत शामें भी होती हैं – कम ही होती हैं – जब ल्योन्या
जल्दी शांत हो जाता है, और मम्मा कॉपियाँ जाँचने बैठती है, तब कोरोस्तेल्योव
सिर्योझा को बिस्तर पर लिटाता है और कहानी सुनाता है. पहले वह अच्छी तरह से नहीं
सुनाता था, बल्कि उसे आता ही नहीं था; मगर सिर्योझा ने उसकी मदद की और उसे सिखाया,
और अब कोरोस्तेल्योव काफ़ी अच्छी तरह से कहानी सुनाता है:
“एक समय की बात है. एक राजा और
रानी रहते थे. उनकी एक सुन्दर बेटी थी, राजकुमारी...”
और सिर्योझा सुनता है और ठीक करता है, जब तक कि वह सो नहीं जाता.
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