अध्याय 11
वास्का और उसके मामा
वास्का के एक मामा हैं. लीदा ज़रूर कहती कि यह सब झूठ है, कोई मामा-वामा
नहीं है, मगर उसे अपना मुँह बन्द रखना पड़ेगा : मामा हैं; ये है उनकी फोटो – शेल्फ
पर, लाल बुरादे से भरे दो गुलदस्तों के बीच में. मामा की फोटो ताड़ के पेड़ के नीचे
ली गई है; उन्होंने पूरी सफ़ेद ड्रेस पहनी है, और सूरज भी ऐसी चकाचौंध करती रोशनी
फेंक रहा है, कि न तो उनका चेहरा, और न ही उनकी ड्रेस समझ में आती है. फ़ोटो में
सिर्फ़ ताड़ का पेड़ ही अच्छी तरह आया है, और दो छोटी छोटी काली परछाईयाँ भी : एक
मामा की दूसरी ताड़ के पेड़ की.
चेहरा तो – कोई बात नहीं, मगर दुख इस बात का है कि मामा की ड्रेस समझ में
नहीं आ रही है. वो सिर्फ़ मामा ही नहीं है, बल्कि वो एक समुद्री जहाज़ के कप्तान
हैं. वास्का कहता है कि फ़ोटो होनोलुलु शहर में ली गई है, ओआखू द्वीप पर. कभी कभी
मामा के पास से पार्सल आते हैं. वास्का की माँ शेख़ी मारती है:
“कोस्त्या ने फिर से दो कटपीस
भेजे हैं.”
कपड़े के टुकड़ों को वह कटपीस कहती है. मगर पार्सलों में कीमती चीज़ें भी
होती हैं जैसे: स्प्रिट की बोतल, और उसमें छोटा सा मगर का पिल्ला, छो s s टा, जैसे मछली, मगर सचमुच का; वह स्प्रिट
में चाहो तो सौ साल तक रह सकता है और ख़राब नहीं होगा. तभी वास्का इतनी शेखी मारता
है: हर चीज़ जो और बच्चों के पास है – मगर के पिल्ले के सामने कुछ भी नहीं.
या फिर पार्सल में बड़ी सी सींप आती है : बाहर से भूरी, और अन्दर से
गुलाबी – गुलाबी पल्ले ज़रा से खुले हुए, होठों जैसे – और अगर उसे कान के पास रखो
तो हल्की – जैसे बहुत दूर से आ रही हो, एकसार घरघराहट सुनाई देती है. जब वास्का
अच्छे मूड़ में होता है तो वह सिर्योझा को सुनने के लिए देता है. और सिर्योझा सींपी
से कान लगाए खड़ा रहता है, निश्चल, खुली आँखों से, और, साँस थामकर, सुनता है धीमी,
निरंतर घरघराहट जो सींपी की गहराई से आ रही है. कैसी है ये घरघराहट? वह कहाँ से
आती है? इसके कारण इतनी बेचैनी क्यों महसूस होती है – और क्यों इसे सुनते रहने को
जी चाहता है?...
और यह मामा, असाधारण, सबसे अलग – ये मामा होनोलुलु और दूसरे सभी द्वीपों
के बाद वास्का के यहाँ आने की सोचते हैं! वास्का ने रास्ते पर आकर इस बारे में
बताया; बड़ी बेफ़िक्री से बताया, मुँह के कोने में सिगरेट दबाए और धुँए से आँख
सिकोड़ते हुए; इस तरह से बताया जैसे इसमें कोई ख़ास बात नहीं थी. और जब शूरिक ने कुछ
देर की ख़ामोशी के बाद मोटी आवाज़ में पूछा, “कौन से मामा? कप्तान?” – तो वास्का ने
जवाब दिया:
“और कौन से? मेरे तो
दूसरे कोई मामा ही नहीं हैं.” उसने ‘मेरे तो’ बड़े नखरे से कहा, जिससे स्पष्ट हो
जाए: “तुम्हारे कोई और मामा हो सकते हैं, कप्तान नहीं; मगर मेरे वैसे कोई नहीं हो
सकते. और सब ने मान लिया कि वाक़ई में ऐसी ही बात है.
“वे क्या जल्दी ही आने वाले
हैं?” सिर्योझा ने पूछा.
“एक-दो हफ़्ते बाद,” वास्का ने
जवाब दिया. “अच्छा, मैं जाता हूँ चूना ख़रीदने.”
“तुझे चूना क्यों चाहिए?”
सिर्योझा ने पूछा.
“माँ छत की सफ़ेदी करने वाली है.”
बेशक, ऐसे मामा की ख़ातिर छतों की सफ़ेदी कैसे नहीं की जाए!
“झूठ बोलता है,” लीदा से रहा
नहीं गया. “कोई भी नहीं आ रहा है उनके घर.”
इतना कह कर वह फ़ौरन पीछे हट गई, इस डर से कि कहीं कान पर झापड़ न पड़ जाए. मगर
इस बार वास्का ने उसे कान पर झापड़ नहीं दिया. “बेवकूफ़” भी नहीं कहा – सिर्फ बेंत
की बास्केट हिलाते हुए दूर निकल गया, जिसमें चूने के लिए एक थैली पड़ी थी. और लीदा
अपमानित सी वहीं खड़ी रह गई.
...छतों पर सफ़ेदी की गई और नए वॉल पेपर चिपकाए गए. वास्का वॉल पेपर के
टुकड़ों पर गोंद लगा लगाकर माँ को देता और वह उन्हें चिपकाती. बच्चे ड्योढ़ी से झाँक
रहे थे – वास्का ने उन्हें कमरों में आने से मना किया था.
“तुम लोग मुझे गड़बड़ा देते हो,”
उसने कहा.
इसके बाद वास्का की माँ ने फ़र्श धोया और वहाँ एक चटाई बिछा दी. वह और
वास्का चटाई पर चल रहे थे, फ़र्श पर पैर नहीं रख रहे थे.
“नाविक लोगों को सफ़ाई से बेहद
प्यार होता है,” वास्का की माँ ने कहा.
अलार्म घड़ी पिछले कमरे में रख दी गई, जहाँ मामा सोया करेंगे.
“नाविक हर काम घड़ी के मुताबिक
करते हैं,” वास्का की माँ ने कहा.
बड़ी बेसब्री से मामा का इंतज़ार हो रहा था. अगर दाल्न्याया रास्ते पर कोई
गाड़ी मुड़ती तो सब की साँस रुक जाती – कहीं ये मामा ही तो नहीं आ रहे हैं स्टेशन
से. मगर गाड़ी गुज़र जाती और मामा होते ही नहीं थे, और लीदा बड़ी ख़ुश होती. उसकी अपनी
अलग तरह की ख़ुशियाँ थीं, वैसी नहीं जैसी औरों की होती थीं.
शाम को, काम से लौटकर और घर का काम निपटा कर, वास्का की माँ गेट से बाहर
निकलती पड़ोसियों के सामने अपने कैप्टेन भाई की तरीफ़ करने. और बच्चे, एक ओर को खड़े
होकर सुनते.
“अभी वह हेल्थ- रिसॉर्ट में है,”
वास्का की माँ ने कहा. “अपनी सेहत सुधार रहा है. दिल कमज़ोर है. उसे ‘पास’ मिला है,
बेशक, सबसे अच्छे रिसॉर्ट का. और इलाज के बाद वह हमारे यहाँ आएगा.”
“एक समय था, कितना बढ़िया गाता था
वो!” वह आगे बोली, “ कैसे वह क्लब में गाया करता था, ‘कहाँ, कहाँ तुम चले गए हो’’
– कोज़्लोव्स्की से भी बढ़िया! अब, बेशक, मोटा हो गया है, साँस फूलने लगती है, और
परिवार में भी भगवान जाने क्या हो रहा होगा, ऐसे में कोई कैसे गा सकता है!”
उसने आवाज़ नीची कर ली और बच्चों से छिपाते हुए और कुछ कहने लगी.
“और सब लड़कियाँ ही हैं,” वह कह
रही थी. “एक सुनहरे बालों वाली, दूसरी साँवली, तीसरी लाल बालों वाली. सिर्फ बड़ी
वाली कोस्त्या जैसी है. और वह समन्दर में सफ़र करता रहता है और कुढ़ता रहता है. मगर
बीबी भाग्यवान है. लड़कियाँ चाहे दस भी हों, उन्हें पालना एक लड़के के मुकाबले
ज़्यादा आसान है.”
पड़ोसियों ने वास्का की ओर देखा.
“भाई होने के नाते कोई सलाह दे दे,” वास्का की माँ बोलती रही, “अपना
मर्दों वाला फ़ैसला सुना दे. मैं तो एकदम बेज़ार हो गई हूँ.”
“लड़कों के साथ बड़ी तकलीफ़ उठानी
पड़ती है,” झेन्का की मौसी ने आह भरी, “जब तक उन्हें अपने पैरों पर न खड़ा करो.”
“निर्भर करता है कि लड़का कैसा
है,” पाशा बुआ ने विरोध किया. “हमारा, मिसाल के तौर पर, बेहद नाज़ुक मिजाज़ का है.”
“ये तो जब तक छोटा है, तभी तक,”
वास्का की माँ ने जवाब दिया. “बचपन में सभी नर्म मिजाज़ होते हैं. मगर जब बड़े हो
जाते हैं – तो अपने रंग दिखाने लगते हैं.”
कप्तान मामा रात में आए – सुबह बच्चों ने वास्का के बगीचे में झाँका, और
वहाँ पगडंडी पर मामा खड़े थे, पूरे बर्फ़ जैसी सफ़ेद ड्रेस में, जैसे कि फ़ोटो में थे
: सफ़ेद ट्यूनिक, सफ़ेद जूते, सफ़ेद पतलून क्रीज़ वाली, ट्यूनिक पर सुनहरे बटन; पीठ के
पीछे हाथ किए खड़े हैं, और मुलायम, कुछ कुछ नाक से, कुछ कुछ हाँफ़ती आवाज़ में बोल
रहे हैं:
“यहँ कितना सुं – दर है! कैसा
स्वर्ग है! गर्म प्रदेश से आने के बाद यहाँ दिल खोलकर आराम कर सकते हैं. तुम कितनी
ख़ुशनसीब हो, पोल्या, कि इतनी अद्भुत जगह पर रहती हो.”
वास्का की माँ कहती है,
“हाँ, हमारे यहाँ ठीक ठाक है.”
“आह, स्टार्लिंग का घर!” कमज़ोर
आवाज़ में मामा चिल्लाए. “स्टार्लिंग का घर बर्च के पेड़ पर! पोल्या तुझे याद है
हमारी स्कूल की किताब, उसमें बिल्कुल ऐसी ही तस्वीर थी – बर्च ट्री पर लटका हुआ
स्टार्लिंग का घर!” (स्टार्लिंग – एक छोटा, शोर मचाने वाला, काले चमकदार पंखों
वाला पक्षी. उसके लिए एक लकड़ी का बक्सा अक्सर पेड़ पर या खंभे पर लगा देते हैं.)
“ये स्टार्लिंग का घर वास्या ने
टांगा है वहाँ,” वास्या की माँ ने कहा.
“म-स्त छोकरा है!” मामा ने कहा.
वास्का भी वहीं था, नहाया धोया, नम्र, बिना कैप के, बाल कढ़े हुए, जैसा कि
पहली मई को करता है.
“चलो, नाश्ता करने,” वास्का की
माँ ने कहा.
“मुझे इस हवा में साँस लेनी है!”
मामा ने विरोध किया. मगर वास्का की माँ उन्हें ले गई. वह ड्योढ़ी पर चढ़े,
भारी-भरकम, जैसे सोना लगा हुआ सफ़ेद टॉवर, और घर के भीतर छुप गए. वह मोटे थे, और
ख़ूबसूरत भी, भला चेहरा, दोहरी ठोढ़ी. चेहरा धूप में तांबे जैसा हो गया था, और माथा
सफ़ेद झक्; एक सीधी लकीर धूप में साँवले पड़ गए चेहरे को सफ़ेदी से अलग कर रही
थी...और वास्का फ़ेंसिंग के पास आया, जिसके बाँसों के बीच से चिपक कर देख रहे थे
सिर्योझा और शूरिक.
“क्या,” उसने प्यार से पूछा,
“तुम्हें क्या चाहिए, बच्चों?”
मगर वे सिर्फ नाक से सूँ-सूँ करते खड़े रहे.
“वे मेरे लिए घड़ी लाए हैं,”
वास्का ने कहा. हाँ, उसके दाएँ हाथ पर घड़ी बंधी थी, सचमुच की घड़ी, पट्टे वाली! हाथ
उठाकर उसने सुना कि वह कैसे टिक-टिक करती है, और चाभी भी घुमाई.
“और क्या, हम तुम्हारे यहाँ आ
सकते हैं?” सिर्योझा ने पूछा.
“ठीक है, आओ,” वास्का ने इजाज़त
दी. “मगर ख़ामोश रहना! और जब वे आराम करने के लिए लेटेंगे, और जब रिश्तेदार आएँगे,
तो एक भी लब्ज़ बोले बिना निकल जाना. हमारे यहाँ परिवार की मीटिंग होने वाली है.”
“कैसी परिवार की मीटिंग?”
सिर्योझा ने पूछा.
“बैठकर सलाह-मशविरा करेंगे कि
मेरा क्या किया जाए,” वास्का ने समझाया.
वह घर में चला गया, और बच्चे भी अन्दर चले गए, चुपचाप, और देहलीज़ के पास
खड़े रहे.
कप्तान मामा ने ब्रेड के टुकड़े पर मक्खन लगाया, काँच के प्याले में उबला
हुआ अंडा रखा, उसे चम्मच से तोड़ा, सावधानी से छिलका निकाला और उस पर नमक लगाया.
नमक उन्होंने नमकदानी से छुरी की नोक से लिया. किसी चीज़ की ज़रूरत थी उन्हें,
उन्होंने इधर-उधर देखा, उनकी सफ़ेद भौंहों पर परेशानी के भाव छा गए. आख़िर में
उन्होंने अपनी मुलायम आवाज़ में नज़ाकत से पूछा:
“पोल्या, माफ़ करना, क्या एक
नैपकिन मिल सकता है?”
वास्का की माँ भागकर गई और उसके लिए साफ़ सुथरा रूमाल लाई. उन्होंने
धन्यवाद दिया, रूमाल को घुटनों पर रखा और खाने लगे. वह ब्रेड के छोटे छोटे टुकड़े
खा रहे थे, और बिल्कुल भी पता नहीं चल रहा था कि वह कैस उन्हें चबाते हैं और
निगलते हैं. और वास्का त्योरी चढ़ाए बैठा था, उसके चेहरे पर कई तरह के भाव प्रकट हो
रहे थे: उसे बुरा लग रहा था कि उनके घर में रूमाल भी नहीं मिला; और साथ ही उसे
अपने सुसंस्कृत मामा पर गर्व भी हो रहा था जो बिना रूमाल के नाश्ता नहीं कर सकता
था.
वास्का की माँ ने कई तरह की खाने की चीज़ें मेज़ पर सजाई थीं. मामा ने हर
चीज़ थोड़ी थोड़ी ली, मगर एक तरफ़ से ऐसा भी लग रहा था कि वे कुछ खा ही नहीं रहे हैं,
और वास्का की माँ ने कहा:
“तुम कुछ खा ही नहीं रहे हो!
तुम्हें अच्छा नहीं लगा!”
“हर चीज़ इतनी स्वादिष्ट है,”
मामा ने कहा, “मगर मैं डाएट पर हूँ, बुरा न मानो, पोल्या.”
वोद्का पीने से उन्होंने इनकार कर दिया, यह कहते हुए कि, “नहीं. दिन में
एक बार कोन्याक का एक छोटा पैग,” उन्होंने नफ़ासत से दो उँगलियों से दिखाया कि पैग
कितना छोटा होता है – “दोपहर के खाने के पहले, इससे धमनियाँ चौड़ी हो जाती हैं, बस,
इतना ही मैं ले सकता हूँ.”
नाश्ते के बाद उन्होंने वास्का से घूमने का प्रस्ताव किया और कैप पहनी,
वह भी सफ़ेद, सोना जड़ी हुई.
“तुम लोग – अपने अपने घर जाओ,”
वास्का ने सिर्योझा और शूरिक से कहा.
“आह, ले चलेंगे उन्हें भी!” मामा
ने नाक से कहा. “ब-ढ़िया हैं बच्चे! लुभावने भाई हैं!”
“हम भाई नहीं हैं,” शूरिक ने
भारी आवाज़ में कहा.
“वे भाई नहीं हैं,” वास्का ने
पुष्टि की.
“वाक़ई?” मामा को आश्चर्य हुआ.
“और मैं सोच रहा था – भाई हैं. कुछ समानता तो है: एक भूरे बालों वाला, दूसरा काले
बालों वाला...हुँ, भाई नहीं हैं – कोई बात नहीं, चलो घूमने!”
लीदा ने उन्हें बाहर रास्ते पर निकलते देखा. वह तो उन्हें पकड़ने के लिए
दौड़ने ही लगती. मगर वास्का ने कंधे के ऊपर से तिरछी नज़र से उसकी ओर देखा, वह
मुड़कर, उछलते हुए, दूसरी ओर भाग गई.
वे जंगल की झाड़ियों में घूम रहे थे – मामा पेड़ों को देखकर विभोर हो रहे
थे. खेतों में घूमे – वे बालियों को देखकर मगन हो गए. सच्ची बात कहें, तो उनके जोश
को देखकर सब उकता गए : इससे अच्छा तो वे ये ही बताते कि वहाँ समुद्र और द्वीपों पर
कैसा होता है. मगर, फिर भी, वे अच्छे थे – उनकी पोशाक की सुनहरी पट्टियाँ धूप में
जिस तरह चमक रहीं थीं, उससे तकलीफ़ होती थी. वह वास्का के साथ चल रहे थे, और
सिर्योझा और शूरिक कभी पीछे रहते, कभी सामने से मामा का चेहरा देखने के लिए भागकर
आगे जाते. वे नदी के पास आए. मामा ने घड़ी देखी और बोले कि थोड़ी देर तैर सकते हैं.
और वे गरम गरम, साफ़ रेत पर कपड़े उतारने लगे.
सिर्योझा और शूरिक को यह देखकर निराशा हुई कि कोट के नीचे मामा ने
नाविकों की धारियों वाली बनियान नहीं, बल्कि साधारण सफ़ेद कमीज़ पहनी थी. मगर, हाथ
ऊपर करके जैसे ही उन्होंने सिर से कमीज़ खींची, वे बुत बन गए.
मामा का पूरा शरीर, गर्दन से शॉर्ट्स तक, ये पूरा लंबा चौड़ा, धूप में
एक-सा साँवला हुआ, चरबी की परतों वाला शरीर घनी, गहरी नीली नक्काशी से ढँका हुआ
था. मामा पूरी तरह से सीधे खड़े हो गए तो बच्चों ने देखा कि ये कोई नक्काशी नहीं,
बल्कि कुछ चित्र, कुछ लिखाई थी. सीने पर एक जलपरी बनी हुई थी, उसकी मछलियों जैसी
पूँछ और लंबे लंबे बाल थे; बाएँ कंधे से उसकी ओर एक ऑक्टोपस रेंग कर आ रहा था अपने
लहराते हुए तंतुओं और भयानक, इन्सान जैसी आँखों के साथ; जलपरी उसकी ओर बाँहें फ़ैला
रही थी, चेहरा मोड़ कर विनती कर रही थी कि उसे न पकड़े – बड़ा डरावना और सजीव चित्र!
दाएँ कंधे पर दूर तक फैली हुई लिखाई थी, कई लाईनों में, और दाहिने हाथ पर भी – कह
सकते हैं कि मामा का पूरा दाहिना बाज़ू लिखाई से भर गया था. बाएँ हाथ पर, कोहनी के
ऊपर दो कबूतर चोंच मिलाए एक दूसरे को चूम रहे थे, उनके ऊपर एक हार और एक मुकुट था,
कोहनी के नीचे – शलजम, तीर से बिंधा हुआ, और उसके नीचे बड़े बड़े अक्षरों में लिखा
था, ‘मूस्या’.
“लाजवाब!” शूरिक ने सिर्योझा से
कहा.
“लाजवाब!” सिर्योझा ने गहरी साँस
ली.
मामा पानी में घुस गए, एक डुबकी मारी, गीले बालों और प्रसन्न चेहरे से
ऊपर आए, नाक से फुरफुराए और बहाव के विरुद्ध तैरने लगे. बच्चे – उन्हें देखते रहे,
मंत्रमुग्ध होकर.
क्या तैर रहे थे मामा! बड़ी सहजता से वे पानी में हलचल कर रहे थे, बड़ी
सहजता से पानी उनके भारी भरकम शरीर को संभाले हुए था. पुल तक तैरने के बाद वे
मुड़े, पीठ पर लेटकर नीचे की ओर तैरने लगे, पैरों की उँगलियों से अपने शरीर का जिस
तरह संचालन कर रहे थे, वह समझ में भी नहीं आ रहा था. और पानी के भीतर, उनके सीने
पर जलपरी इस तरह लहरा रही थी, जैसे ज़िन्दा हो.
इसके बाद मामा किनारे पर लेट गए, पेट रेत पर रखकर, आँखें बन्द करके,
प्रसन्नता से मुस्कुराते हुए, और बच्चे उनकी पीठ देख रहे थे, जहाँ बनी थी खोपड़ी और
हड्डियाँ, जैसी कि टेलिफ़ोन के बूथ पर होती हैं, और बना था चाँद, और सितारे, और
लंबी ड्रेस में एक औरत, जिसकी आँखों पर पट्टी बंधी थी; वह घुटने फ़ैलाए बैठी थी,
बादलों पर. शूरिक ने हिम्मत बटोरी और पूछा,
“मामा, ये आपकी पीठ पर क्या है?”
मामा हँस पड़े, वे उठे और शरीर पर चिपकी रेत झटकने लगे.
“ये, मुझे यादगार के तौर पर मिले
हैं,” उन्होंने कहा, “अपनी जवानी और असभ्यता के बारे में. देख रहे हो, मेरे
प्यारों, कभी मैं इस हद तक असभ्य था कि अपने शरीर को बेवकूफ़ी भरे चित्रों से ढाँक
लिया, और ये, अफ़सोस, ज़िन्दगी भर के लिए है.”
“और ये आपके ऊपर लिखा क्या है?”
शूरिक ने पूछा.
“क्या ये महत्वपूर्ण है, “ मामा
ने कहा, “कि आपके जिस्म पर क्या बकवास लिखी है. महत्वपूर्ण हैं इन्सान की भावनाएँ
और उसका बर्ताव. तुम क्या सोचते हो, वास्का?”
“सही है!” वास्का ने कहा.
“और समुद्र?” सिर्योझा ने पूछा,
“कैसा होता है वो?”
“समुद्र,” मामा ने दुहराया.
“समुद्र? कैसे बताऊँ तुम्हें. समुद्र तो समुद्र है. समुद्र से ज़्यादा ख़ूबसूरत और
कोई चीज़ नहीं. इसे अपनी आँखों से देखना चाहिए.”
“और जब तूफ़ान आता है,” शूरिक ने
पूछा, “क्या भयानक होता है?”
“तूफ़ान – ये भी ख़ूबसूरत होता
है,” मामा ने जवाब दिया. “समुद्र में हर चीज़ सुन्दर होती है.” ख़यालों में डूबकर
सिर हिलाते हुए उन्होंने कविता पढ़ी:
बात क्या एक ही नहीं, कहा उसने, कहाँ?
पानी में लेटने से ज़्यादा सुकून और कहाँ.”
और वे अपनी पतलून पहनने लगे.
घूमने के बाद उन्होंने आराम
किया, और बच्चे वास्का की गली में खड़े होकर मामा के गोदने के बारे में बात करने
लगे.
“ये बारूद से किया जाता है,”
कालीनिन सड़क के एक लड़के ने कहा. “पहले
तस्वीर बनाते हैं, फिर उस पर बारूद मलते हैं. मैंने पढ़ा था.”
“और तू बारूद कहाँ से लाएगा?”
दूसरे ने पूछा.
“कहाँ : दुकान से.”
“दे दिए तुम को दुकान से. सिगरेट
ही सोलह साल की उम्र तक नहीं देते हैं, बारूद की तो बात ही छोड़ो.”
“शिकारियों के पास से ले सकते
हैं.”
“दे चुके वे भी तुझे बारूद!”
“बिल्कुल देंगे.”
“देख लेना, नहीं देंगे.”
मगर तीसरे लड़के ने कहा:
“बारूद से तो पिछले ज़माने में
किया करते थे. अब तो काली स्याही की टिकिया से या काली स्याही से करते हैं.”
“अगर स्याही से करें तो वहाँ पकेगा?”
किसी ने पूछा.
“बिल्कुल पकेगा.”
“बेहतर है स्याही की टिकिया से.
स्याही की टिकिया से बढ़िया पकेगा.”
“स्याही से भी अच्छा ही पकता
है.”
सिर्योझा सुन रहा था और अपनी कल्पना में ओआखू द्वीप पर होनोलूलू शहर को
देख रहा था, जहाँ ताड़ के पेड़ होते हैं, और चकाचौंध करता सूरज चमकता है. और ताड़ के
पेड़ों के नीचे खड़े होकर बर्फ़ जैसी सफ़ेद, सुनहरी
धारियों की पोशाक पहनकर कप्तान फोटो खिंचवाते हैं. ‘मैं भी ऐसी ही फोटो
निकलवाऊँगा,’ सिर्योझा ने सोचा. इन सारे लड़कों की तरह, जो बारूद और स्याही के बारे
में बहस कर रहे थे, उसे भी इस बात में दृढ़ विश्वास था कि उसे दुनिया में जो भी
होता है, वह सब कुछ करना है – होनोलूलू और कप्तानी करना भी. वह इस बात में उसी तरह
विश्वास कर रहा था, जैसे उस बात में कि वह कभी नहीं मरेगा. हर चीज़ का अनुभव होगा;
ज़िन्दगी में, जिसका कभी अंत नहीं होता, वह हर चीज़ देखेगा.
शाम को उसे वास्का के मामा की याद सताने लगी: और वो तो आराम पे आराम किए
जा रहे थे – कल रात को सफ़र में वे पूरी रात सो नहीं पाए थे. वास्का की माँ अपनी
ऊँची एड़ी के जूतों में दौड़ते हुए रास्ते के उस ओर गई और दौड़ते दौड़ते पाशा बुआ से
यह कह गई कि कोन्याक लेने जा रही है. कोस्त्या कोन्याक के आलावा कुछ और नहीं ना
पीता है. सूरज ढलने लगा. रिश्तेदार आए. घर में बिजली के बल्ब जलाए गए. और परदों
तथा जिरेनियम के पौधों के कारण रास्ते से कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था. मगर जब
शूरिक ने उसे अपने लीपा के पेड़ पर बुलाया तो सिर्योझा बड़ा ख़ुश हुआ. वहाँ से भीतर
का सब कुछ दिखाई दे रहा था.
“जब वे जागे तो उन्होंने कसरत
की,” शूरिक ने बताया, जो बड़ी व्यस्तता के भाव से सिर्योझा के साथ चल रहा था. “और
जब उन्होंने दाढ़ी बनाई तो अपने आप पर यू डी कोलोन का स्प्रे छिड़का. वे लोग खाना खा
चुके हैं...चलो, पिछली गली से चलते हैं, वर्ना लीद्का भी पीछे पड़ जाएगी..”
लीपा का पुराना पेड़ तिमोखिन के बाग में पीछे की ओर था, उस जाली के पास,
जो इस बाग को वास्का के बाग से अलग करती थी. जाली के एकदम पीछे – वास्का के घर की
दीवार थी, मगर जाली पर चढ़ नहीं सकते, वह सड़ चुकी है, चरमराती है और टूट कर बिखर
जाती है...
लीपा के पेड़ में सामने ही एक खोट थी, गर्मियों में वहाँ हुदहुद पक्षी
रहते थे, अब शूरिक ने उसमें अपनी चीज़ें रखी हैं, जिन्हें बड़ों से छुपाकर रखना ही
बेहतर होता है – कारतूसों के खोल और मैग्निफ़ाइंग ग्लास, जिसकी सहायता से गर्मी से
जला जला कर फ़ेंसिंग पर और बेंचों पर कई शब्द बनाए जा सकते हैं.
खुरदुरे, दरारें पड़े तने पर पैरों को घसीटते हुए बच्चे लीपा के पेड़ पर चढ़
गए और ख़ूब सारी टहनियों वाली, गड्ढों वाली डाल पर बैठ गए – शूरिक ने तने को कस कर
पकड़ रखा था, और सिर्योझा था उसके पीछे.
अब वे थे रेशमी – सरसराते हुए, प्यार से गुदगुदी करते, ताज़ी-कड़वी ख़ुशबू
वाले लीपा के पत्तों के तम्बू में. ऊपर, उनके सिरों के ऊपर डूबते हुए सूरज की
रोशनी में तम्बू सुनहरा प्रतीत हो रहा था, और जैसे जैसे नीचे आ रहा था, अँधेरा गहराता
जा रहा था. काले पत्तों वाली डाली सिर्योझा के सामने झूल रही थी, वह वास्का के घर
के भीतर के दृश्य को ढाँक नहीं रही थी. वहाँ बिजली की रोशनी हो रही थी और
रिश्तेदरों के बीच कप्तान मामा बैठे थे. और अन्दर की बातचीत भी सुनाई दे रही थे.
वास्का की माँ हाथ नचाते हुए कह रही थी, “और लिख कर देते हैं रसीद कि
नागरिक चुमाचेन्को पे.पे. से रास्ते पर गुंडागर्दी करने के आरोप में 25 रूबल्स का
दंड प्राप्त हुआ.”
एक रिश्तेदार औरत हँसने लगी.
“मेरी राय में इसमें हँसने वाली
कोई बात ही नहीं है,” वास्का की माँ ने कहा, “वापस दो महीने बाद मुझे पुलिस थाने
में बुलाया जाता है और आरोप पत्र दिखाय जाता है, और फिर से कागज़ में लिख कर देते
हैं कि मैंने पचास रूबल्स भरे हैं सिनेमा हॉल की शो केस की काँच तोड़ने के जुर्म
में.”
“तू ये बता कि कैसे उसे बड़े
लड़कों ने मारा. तू बता कि कैसे उसने सिगरेट से रज़ाई जला दी, घर ही जल जाता!”
“और उसके पास सिगरेट के लिए पैसे
कहाँ से आए?” कप्तान मामा ने पूछा.
वास्का घुटनों पर कुहनियाँ टिकाए, हथेली पर गाल रखे बैठा था – नम्र, बाल
करीने से कढ़े हुए.
“बदमाश,” मामा अपनी नर्म आवाज़
में बोले, “मैं तुझसे पूछ रहा हूँ – पैसे कहाँ से लेता है?”
“मम्मा देती है,” वास्का ने
गुस्से से कहा.
“माफ़ करना, पोल्या,” मामा ने
कहा, “मैं समझ नहीं पा रहा हूँ.”
वास्का की माँ हिचकियाँ ले लेकर रोने लगी.
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